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________________ ( 154 ) भीधर्म ही सिद्ध होता है। इसी प्रकार और भी क्रियाएँ जो निर्दयता और अन्याय की करने वाली है,वे सब उनके विचारानुकुल धार्मिक क्रियाएँ हो रही हैं। लेकिन उनका उक्त विचार युक्तियुक्त नहीं है और नाहीं वह प्रामाणिक हो सकता है। अन्यथा धर्मशब्द की उक्त व्युत्पत्ति के अनुसार अधर्म शब्द निरर्थक प्रतीत होता है। जिन्हों ने जैन-सूत्रों में यति धर्म का खरूप सुना है उनके मत में क्षमादि जो गुरु प्रकरण में दश प्रकार से वर्णन किया गया है, वहीं धर्म है / जिन्होंने मनुस्मृति का छठा अध्याय सन्यास वृत्ति को पढ़ा है, उनके अन्तःकरण में "धृति-क्षमा–दमोऽस्तेयं शौचमिन्द्रयनिग्रह / धीविद्यासत्यमक्रोधी दशकं धर्मलक्षणम् // 1 // इस तरह का धर्म झलकता है। शंका यह उत्पन्न हो सकती है कि यह धर्म तो यति लोगों का है या सन्यासी लोगों का ही है। परन्तु गृहस्थ लोग किस धर्म के प्राश्रित होकर संसार के व्यवहार को चलावें? इत्यादि प्रश्नों के उत्तर जैन-धर्म ने बड़ी विशद युक्तियों से दिये हैं जिन के पढ़ने से सम्यक्तया धर्म के स्वरूप को मनुष्य जान सकता है / इस के अतिरिक्त उन स्थविरों का भी वर्णन किया गया है जिन्हों ने उस धर्म के नियमों को बाधित किया है। तथा च पाठः दसविधे धम्मे पं० २०-गामधम्मे 1 नगरधम्मे 2 रधम्मे 3 पासंडधम्मे 4 कुलधम्मे 5 गणधम्मे 6 संघधम्मे 7 सुयधम्मे 8 चरित्तधम्मे अत्थिकायधम्मे 10 ठाणागसूत्रस्थान 10 वा सू 760 वृत्ति-दसेत्यादि, ग्रामाः जनपदास्तेषां तेषु वा धर्मः-समाचारो व्यवस्थेति ग्रामधर्मः सच प्रतिग्रामं भिन्न इति, अथवा ग्रामाः-इन्द्रियग्रामाः तेषु रूढो धर्मः विषयाभिलाषः।। नगर-धौ-नगराचारः सोऽपि प्रतिनगरं प्रायोभिन्न एवाशराष्ट्रधर्मों-देशाचारः / पाखण्ड-धर्म:-दुष्टानामाचारः। 4 ।कुलधर्मः-उग्रादिकुलाचारः अथवा कुलं चान्द्रादिकमाहतानां गच्छसमूहात्मकं स धर्मः-समाचारः 11 गण-धर्माः-मल्लादि गण-व्यवस्था जैनानां वा कुलसमुदायो गणः-कोटिकादिस्तद्धर्म:-तत्समाचारः।६। संघ-धर्मो-गोष्टी-समाचारः, आर्हतानां वा गणः समुदायरूपश्चतुर्वर्णानां वा संघस्तद्धर्म:-तत्समावारः श्रुतमेव-अाचारादिकं दुर्गतिं प्रपतज्जीवधारणाद् धर्मः श्रुतधर्मः' 18 चयरिक्तीकरणाद' यच्च चरित्रं तदेव धर्मश्चरित्र-धर्मः / / / अस्तिकाय:प्रदेशास्तषां कायो राशिरस्तिकायः स एव धर्मों-गतिपर्याये जीवपुद्गलयो र्धारणादित्यस्तिकायधर्मः // 10 // अयं च ग्रामधादिवद् धर्मः स्थविरैः कृतो भवतीति स्थविरान्निरूपति- . दसथेरा पं-तं०-गामथेरा 1 नगरथेरा 2 रहथेरा 3 पसत्थारथेरा 4
SR No.010871
Book TitleJain Tattva Kalika Vikas Purvarddh
Original Sutra AuthorN/A
Author
Publisher
Publication Year
Total Pages328
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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