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________________ करना ॥३॥फिर अहंकार से रहित होकरमार्दवभाव धारण करना, कारण किजब अहंकार भाव का अभाव होजाता है, तब आत्मा में एक अलौकिक मार्दव भाव का आनंद उत्पन्न होने लगता है। अतएव मार्दव भाव अवश्यमेव धारण करना चाहिए जिस से अहंकार नष्ट हो // 5 // लाघवभावद्रव्य और भाव से अल्पोपधि, क्रोध,मान, माया और लोभ का परित्याग करना ॥क्षा सत्यवादी वनना, परन्तु स्मृति रहे कि--"सत्य" शास्त्रों में दो प्रकार से प्रतिपादन किया गया है। जैसेकि-द्रव्यसत्य और भावसत्य / द्रव्यसत्य उसे कहते हैं जो व्यवहार में बोलने में आता है। जैसे कि-व्यापारादि में सत्य का भाषण करना / तथा जो वाक्य किसी को कह दिया है, उसकी पूर्ति करने में दत्तचित्त वा सावधान रहना / परन्तु जो पदार्थों के तत्त्व को जानना है, फिर उन्हीं पदार्थों के तत्त्वों की अन्तःकरण में दृढ़ श्रद्धा धारण करनी है, उसको भावसत्य कहते हैं, क्योंकि सामान्यतया पदार्थ दो हैं जैसेकिजीव पदार्थ और अजीव पदार्थ / अतएव सिद्ध हुश्रा कि-इन दोनों पदार्थों में सम्यग्दृष्टि आत्मा के ही भाव सत्य हो सकते हैं। 7 संयम-पूर्वोक्त सप्तदश प्रकार से संयम पालन करना चाहिए। तपःकर्म-तप का वास्तविक अर्थ है-इच्छा-निरोध करना / यद्यपि इस तपःकर्म के शास्त्रों में अनेक भेद प्रतिपादन किये गए हैं तथापि उन सब का भाव यही है कि-इच्छा-निरोध करके साधु फिर आत्मदर्शी बने / 6 चियाए-(त्याग) सब प्रकार से संगों का परित्याग करना, तथा स्वयं आहारादिलाकर अन्य भिक्षुओं को देना, क्योंकिहेम कोष में दान का पर्यायवाची नाम त्याग भी कथन किया गया है / तथा इस शब्द की वृत्ति करने वाले लिखते हैं / जैसे कि-"चियाए-त्यागः सर्व संगानां संविग्नमनोज्ञसाधुदानं वा” अतएव साधुओं को योग्य है कि वे परस्पर दान करें / 10 ब्रह्मचर्यावास-ब्रह्मचर्य में रहना अर्थात् ब्रह्मचारी वनना / इस प्रकार जव अन्तःकरण से साधुवृत्ति का पालन किया जायगा, तव आत्मा कर्म कलंक से रहित होकर निर्वाण पद की प्राप्ति करता है। उपरान्त सादि अनन्त पद वाला होजाता है / अतएव गुरुपद में आचार्य उपाध्याय और साधु तीनों ग्रहण किये गये हैं इसीलिए 'साधु पद को शास्त्र में 'धर्म देव' के नाम से लिखा है, क्योंकि-जो सुव्रत साधु हैं वे संसार समुद्र में डूबते हुए प्राणियों के लिए द्वीप के समान आश्रयीभूत हैं / इस लिये-संसार समुद्र से पार होने के लिये ऐसे महामुनियों की संगति करनी चाहिए जिससे आत्मा अपना वा अन्य का उद्धार कर सके / इति श्री जैनतत्त्वकलिका-विकासे गुरु-स्वरूप-वर्णनामिका द्वितीया-कलिका समाप्ता /
SR No.010871
Book TitleJain Tattva Kalika Vikas Purvarddh
Original Sutra AuthorN/A
Author
Publisher
Publication Year
Total Pages328
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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