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________________ ( 142 ) भोगना है इसलिये मुझे इस वेदना से घबराना नहीं चाहिए / अपरंच इस वेदना के सहन करने से मेरे किए हुए महान् कर्मों की निर्जरा हो जायगी। * 17 तुणस्पर्श परीषह-संस्तारकादि के न होने से तथा तृणादि पर शयन करने से जो शरीर को वेदना उत्पन्न होती है उसको सम्यग्तया सहन करे अपितु तृण के दुःख से पीडित होकर प्रमाण से अधिक वस्त्रादि भी न रखे। 18 जल्ल-यावज्जीव पर्यन्त स्नानादि के त्याग होने से यदि ग्रीप्म ऋतु के अाजाने पर शरीर प्रस्वेद के कारण मल युक्त हो गया हो तो शांतिपूर्वक उस वेदना को सहन करे किन्तु स्नानादि के भावोंको मनमें स्थान न दे कारण कि-ब्रह्मचारी को स्नानादि क्रियाओं के करने की आवश्यकता नहीं है / केवल आचमन शुद्धि के लिये वा अन्य मलादि के लग जाने पर शारीरिक - शुद्धि की आवश्यकता होती है / 16 सत्कार पुरस्कार परीषह-वस्त्रादि के दान से किसी ने सत्कार किया अथवा देखा देखी या अन्य कारणवश किसी ने सन्मान किया तो इस सत्कार वा सन्मान के होजाने पर अंहकार न करना चाहिए। 20 प्रज्ञा परीपह-विशेष ज्ञान होने से गर्व न करे और न होने से चिंता न करे जैसकि-"परमपंडितोऽस्मि" मैं परम पंडित हूं इत्यादि प्रकार से मान न करना चाहिए यदि शान-अध्ययन नहीं किया गया तो शोक भी न करना चाहिए जैसेकि-मैने श्रामण्यभाव क्यों ग्रहण किया? मुझे शान तो आया ही नही इत्यादि / किन्तु ज्ञानसंपादन करने में सदैव पुरुषार्थ होना चाहिए। 21 अज्ञान परीपह-ज्ञानावरणीयादि कर्मों के उदय से यदि ज्ञान पठन नहीं किया जा सका तो शोक न करना चाहिए अपितु चित्त स्वस्थ करके तपकर्म, आचारशुद्धि वा विनय को धारण करना चाहिए ताकि ज्ञानावरणीय कर्म सर्वथा ही क्षय हो जावे।। 22 दर्शन परीपह-सम्यक्त्व में परम दृढ़ होना चाहिए। किसी समय नास्तिकादि लोगों की ऋद्धिको देखकर अपने सुगृहीत तत्त्वों से विचलित न होना चाहिए। जैसेकि-देखो, जो तत्त्वविद्या से रहित है वे किस प्रकार उन्नत हो रहे हैं और हम तत्त्वविद्या के रहस्य को जाननेवाले परम तिरस्कार को प्राप्त हो रहे हैं / अतएव इस हमारी तत्त्वविद्या में कोई भी अतिशय नहीं है। इस से यह भी सिद्ध होता है कि जो लोग परलोकादि को मानते हैं वे परम मूर्ख हैं मेरे विचार में लोक परलोक कुछ भी नहीं है, न कोई अति- . शय युक्त लब्धि है और न कोई तीर्थकरादि भूतकाल में हुए हैं, न होंगे, और न अव है सो यह सब भ्रम है। इस प्रकार के भाव मन में कदापि चिंतन
SR No.010871
Book TitleJain Tattva Kalika Vikas Purvarddh
Original Sutra AuthorN/A
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Publisher
Publication Year
Total Pages328
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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