SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 160
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ( 136 ) विशुद्धि तप की समाप्ति करते हैं सो इसीका नाम परिहार विशुद्ध चारित्र है // सून्म संपराय चारित्र उस का नाम है जिसमें लोभ कषाय को सूक्ष्म किया जाता है। यह चारित्र उपशम श्रेणि वा क्षपक श्रेणि में देखा जाता है। उपशमश्रेणि 10 वे गुणस्थान पर्यन्त रहती है। अपरंच यथाख्यात चारित्र उसे कहते हैं जिससे मोहकर्म उपशम वा क्षायिक होकर आत्मगुण प्रकट होजाते हैं। सो इन पांचों चारित्रों की सम्यग्तया अाराधना करना उसे ही चारित्रसंपन्नता कहते हैं। 26 वेदनाध्यासना-वेदना के सहन करने वाला जैसेकि-मनुष्यकृत देवकृत तथा तिर्यग्कृत उपसर्गों में से किसी भी उपसर्ग के सहन करने का समय जव उपस्थित होजावे तब उस उपसर्ग को सहन करे / वेदना शब्द से 22 परीपह भी लिये जाते हैं सो उन परीषहों को सहन करे। इनके अतिरिक्त कोई अन्य वेदना सहन करने का समय उपस्थित होजावे तो उस को भी सम्यग्तया शास्त्रोक्त रीति से सहन करे जिससे कर्म निर्जरा होने के पश्चात् सम्यग् ज्ञान की प्राप्ति हो। (प्रश्न ) वे 22 परीपह कौन से है जिन के सहन करने से कर्मों की निर्जरा और सम्यग् ज्ञान की प्राप्ति होजाती है ? (उत्तर) वे 22 परीपह निम्न कथनानुसार हैं जिन के सम्यग्तया सहन करने से आत्मा कमाँ की निर्जरा करके सम्यग् ज्ञान की प्राप्ति करलेता है जैसेकि___ बावीस परीसहा प.-तं०—दिगिच्छा परीसहे 1 पिवासा परीसहे 2 सती परीसहे 3 उसिण परीसहे 4 दसमसग परीसहे 5 अचेल परीसहे 6 अरइ परीसहे 7 इत्थी परीसहे 8 चरिया परीसहे ह निसीहिया परीसहे 10 सिज्जा परीसहे 11 अक्कोस परीसहे 12 वह परीसहे 13 जायणा परीसहे 14 अलाभ परीसहे 15 रोग परीसहे 16 तणफास परीसहे 17 जल्ल परीसहे 18 सक्कार पुरक्कार परीसहे 16 पएणा परीसहे 20 अण्णाण परीसहे 21 दंसण परीसहे 22 समवायाग सूत्र-स्थान-२२ वृत्ति -द्वाविंशतितमं तु स्थानं प्रसिद्धार्थमेव नवरं सूत्राणि षट् स्थितरर्वाक्. तत्र मागी , च्यवन निर्जराथ परीपह्यन्त इति परीपहा:--"दिगिंछ"त्ति बुभुक्षा सैव परीषही दिगिञ्छ परीषह इति सहनं चास्य नर्यादानुल्लनिन, एव मन्यत्रापि 1 तथा पिपासा-तट शीतोष्ण प्रतीते 3-4 तथा दशाश्च मशकाश्च दंशमशका उभयेऽप्येत चतुरिन्द्रिया महत्त्वा महत्कृतश्चैषा विशेषोऽथवा दंशो
SR No.010871
Book TitleJain Tattva Kalika Vikas Purvarddh
Original Sutra AuthorN/A
Author
Publisher
Publication Year
Total Pages328
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy