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________________ ( 125 ) त्याग करे। जव उसकी प्राणीमात्र से मंत्री होगई तब उसके मन में मलिन भाव किस प्रकार उत्पन्न हो सकेंगे? जव मलिन भावों का निरोध किया गया तव उसको अशांति किस प्रकार हो सकती है अर्थात् कदापि नहीं / फिर यह बात सदामानी हुई है कि-वैरसे वैर नहीं जाता किन्तु शांतिसे वैर मारा जास. कता है। अतः जब प्राणातिपात से सर्वथा निवृत्ति करली गई तब उस महापुरुप का प्राणीमात्र से बिल्कुल वैर नष्ट हो गया। जिसका परिणाम यह निकला किउस महापुरुप का पवित्र आत्मा विश्व उपकार में प्रवृत्त होजायगा क्योंकि वह स्वयं प्रेममूर्ति बनकर अन्य जीवों को प्रेममूर्ति वनाएगा। स्मृति रहे कि, अहिंसावत की पालना शूरवीर आत्माएं ही करसकती हैं न तु कातर आत्माएं। अव प्रश्न यह उपस्थित होता है कि-हिंसा कहते किस को है ? इस के उत्तर में तत्त्वार्थाधिगम शास्त्र में लिखा है कि-"प्रमत्तयोगात् प्राण व्यपरोपणं हिंसा अर्थात् प्रमाद के योग से जो प्राणों का नाश करना है उसी का नाम हिंसा है / यदि साधु अप्रमत्त भाव से विचर रहा है तब वह हिंसा के दोष का भागी नहीं बनता है। इस प्रकार जिस आत्मा ने करना, कराना, अनुमोदना तथा मन, वचन और काय के द्वारा पृथ्वीकाय, अप्काय, तेजोकाय, वायुकाय और वनस्पतिकाय इन पांचस्थावरों, दो इन्द्रिय वाले जीव जैसे सीप, शंख, जोक आदि है जिन के केवल स्पर्शन्द्रिय और जिह्वेन्द्रिय है, तीन इन्द्रिय वाले जीव जैसे-जूं, लीख, ढोरा. सुरसली आदि हैं उनके केवल स्पर्श, जिह्वा और घ्राणेन्द्रिय होती हैं, फिर चार इंद्रिय युक्त जीव जैसे मक्खी, मच्छर, पतंगिया, विच्छू इत्यादि हैं, ' इन जीवों के केवल स्पर्श, जिह्वा, प्राण और चक्षुरिन्द्रिय होती हैं, पचेन्द्रिय वाले जीव जैसे जलचर (मत्स्यादि स्थलचर (गवादि) खेचर (पक्षी) मनुष्य, देव, नारकीय इन के स्पर्श, जिह्वा, वाण, चक्षु और श्रोत्र यह पंचेन्द्रिय होती हैं इत्यादि सब जीवों की हिंसा का परित्याग कर दिया है वही साधु है। इस व्रत की रक्षा करने के वास्ते श्री भगवान ने पांच भावनाएं प्रतिपादन की है क्योंकि जिस प्रकार महोघ वाले जल को नावा द्वारा तथा समुद्र को मानपान द्वारा लोग पार कर लेते हैं ठीक उसी प्रकार संसार समुद्र से पार होने के लिये भावनाएं प्रतिपादन कीगई है। इन्हीं भावनाओं द्वारा आत्मा अपना कल्याण करसकता है। सोप्रथम महावत की भावनाएं इस प्रकार कथन कीगई हैं जैसेकि पुरिम पच्छिम गाणं तित्थगराणं पंच जामस्स पणवीसं भावणाओ पएणत्ता तंजहा-ईरियासमिई मणगुत्ती बयगुत्ती आलोय भायण भोयणं आदाण भंडमच निक्खेवणासमिई 5
SR No.010871
Book TitleJain Tattva Kalika Vikas Purvarddh
Original Sutra AuthorN/A
Author
Publisher
Publication Year
Total Pages328
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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