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________________ DiXXXXXXImay Tomaton. प्रश्न-क्या कर्म करने का स्वभाव जीव में है वा कर्म का कर्ता कर्म ही है? उत्तर-इस प्रश्न के उत्तर में दोनों नयों का अवलम्बन करना पड़ता है जैसे कि व्यवहारनय और निश्चयनय / प्रश्न-दोनों नयों के मत में कर्म कर्ता कौन है ? * उत्तर-व्यवहारनय के मत में कर्म कर्ता जीव है, क्योंकि व्यवहार पक्ष में शुभाशुभ कर्मों का कर्ता जीव ही देखा जाता 5 है किन्तु निश्चय के मत में फर्म का कर्ता फर्म ही है क्योंकि फर्म कर्ता वास्तव में श्रास्रव है-कर्मसत्ता होने पर ही उनकी ट्र आकर्षण शक्ति द्वारा नूतन कर्मों का संचार होता है। जिस प्रकार रज्जु का संकलन करते समय पिछले अश के साथ नूतन अश का सम्वन्ध किया जाता है तथा चरने में जब सूत काता जाता है तब भी तंतुओं का परस्पर सकलन किया जाता a है ठीक तद्वत् कर्मसत्ता के होने पर ही वह कर्मसत्ता नूतन कर्मों का श्राकर्पण कर लेती है / इस न्याय के अनुसार कर्म के करनेवाला वास्तव में कर्म ही है। कर्म के दो भेद है। जैसे कि-द्रव्य कर्म और भाव कर्म / चतुःप्रदेशी जो कर्मों की वर्गणाएं हैं वह द्रव्य कर्म हैं किन्तु जो जीव के रागद्वेषादि युक्त भाव हैं वह वास्तव में भाषकर्म हैं क्योंकि जीव की शान चेतना और अज्ञान चेतना धास्तव में दोनों ही चेतना भावकर्म के करनेवाली प्रतिपादन की गई है अत निश्चयनय के मत् में कर्म कर्ता कर्म ही है। इस स्थान पर यदि ऐसा कहा जाए कि-"अप्पा कत्ता विकत्ताय" इस प्रकार सूत्र में श्रात्मा कर्त्ता और विकर्ता (भोक्ता) EERARIKXCXCELEXXXXXXXxsaree ARTHEASTREEDXnxxaaaxnixxRXXXSEXIRAX HIRACORNXXXCOMRAHr
SR No.010866
Book TitleJain Dharm Shikshavali Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
Publisher
Publication Year
Total Pages206
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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