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________________ AREEREYMSTEMATTER Hamrtmne IMRATAXXCREE Conno) K IRamrewareAXONACEASEAN रूपस्थ ध्यान-पूर्ववत् सिंहासन पर बैठ कर श्रीभगवान् जिस प्रकार समवसरण में विराजमान होते है, उनकी प्राकृति का ध्यान करना और उनकी बढ़ती हुई आत्मिक लक्ष्मी का अपन अनुभव से अन्वेपण करना, उन की अनुपम अतिशय का धान करना-इसी का नाम रूपस्थ ध्यान है। तया जिस गुरु से धर्म प्राप्ति हुई है वा जिस प्रकार गुरु के गुण शास्त्रों में कथन किय गए है, जो उन गुणों से युक्त है, वास्तव में वही गुरु है, उसका ध्यान करना चाहिए। उस ध्यान का आनन्द उसी ध्यानी की अनुमच हो सकता है नतु अन्य को / सो इसी का नाम / रूपस्थ ध्यान है। रूपातीत ध्यान-उस का नाम है कि जव ध्यान करने वाला योगी ध्येय में ही लीन हो जावे, जैसे कि-ध्याता, ध्येय और ध्यान / जव योगी ने परमात्म पद का ध्यान किया तब उस का श्रात्मा उसी पद में लीन हो गया / जिस प्रकार आत्मा में विद्या लीन हो जाती है, उसी प्रकार जव ध्याता ध्येय में लीन हो गया तब उस ध्यान को रूपातीत ध्यान A कहते हैं। इसी ध्यान से श्रात्मा परमपद प्राप्त कर सकता है या यों कहिये परमात्म पद में लीन होकर परमात्म संझा // वाला हो जाता है। इस प्रकार की क्रियाओं से जो श्रात्म शुद्धि की जाती है उसी का नाम पंडित वीर्य है तथा इसी के प्रतिकूल प्रात ध्यान वा रौद्र ध्यान की पुष्टि के लिए जो on क्रियाएं की जा तथा हिंसा, भूठ, अदत्त मैथुन और परिग्रह के संचय के लिये जो पुरुपार्थ किया जावे उसी का नाम A बाल वीर्य है। और जो गृहस्थ धर्म की युक्तिपूर्वक आराधना FAmarAXAXERXN- INHEMAKERYXY
SR No.010866
Book TitleJain Dharm Shikshavali Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
Publisher
Publication Year
Total Pages206
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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