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________________ २ अवधि ज्ञानावरणीय ३ मन पर्यव [य] पानावरणीय ४ और केवल मानावरणीय ५ । जब आदि के चार ज्ञान प्रकट होते हैं सव ज्ञानावरणीय कर्म क्षयोपशम भाव में होता है परतु जब फेयल ज्ञान प्रकट होवे तर ज्ञानावरणीय कर्म सर्वथा भय हानाता है क्योंकि चार शान तो अयोपशम भाव में प्रतिपादन किये गए हैं और केवलझान भायिक भाव में रहता है। जब आत्मा के ज्ञानावरणीय कर्म का आयोपशम होता है वय उसी प्रकार का ज्ञान प्रगट होगाता है जैसे कि -- ___ जब मतिज्ञानावरणीय कर्म का क्षयोपशम होगया सय मतिज्ञान प्रकट हो जाता है, जैसे कि - मतिज्ञान के मुग्य दो भेद कथन किये गए हैं। श्रुत निश्रित और अश्रुत निश्रित । भुत निश्रत मतिज्ञान उसफा नाम है पायों के विषय को मुनार जो मति उत्पन्न होती है उसीका नाम श्रुत निश्रित ज्ञान है किन्तु जो पिना सुने किसी विषय को फिर उम विषय पर प्रभ दिये जाने पर शीघ्र ही उस विषय का समाधान कर सके इसी का नाम अधुन निश्रित मतिशान है। ___ यद्यपि यह शान इद्रिय और नोइंद्रिय ('मन ) के सनिक से उत्पन्न होता है तथापि मति में विशेष उपयोग
SR No.010865
Book TitleJain Dharm Shikshavali Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherJain Swarup Library
Publication Year
Total Pages210
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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