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________________ ७३८ चैनसम्प्रदायशिक्षा | अवश्य आनन्द की प्राप्ति हो सकती है, क्योंकि स्वरोदय के ज्ञान में मन और इन्द्रियों का रोकना आवश्यक होता है । यद्यपि प्रथम अभ्यास करने में गृहस्यों को कुछ कठिनता पवश्य मालूम होगी परन्तु जोड़ा बहुत अभ्यास हो जाने पर वह कठिनता आप ही मिट जावेगी, इस लिये भारम्भ में उस की कठिनता से भय नहीं करना चाहिये किन्तु उस का अभ्यास भगइन करना दी चाहिये, क्योंकि यह विद्या यति छामकारिणी है, देखो ! वर्तमान समय में इस देश के निवासी श्रीमान् तथा दूसरे लोग अन्यदेशवासी जनों की बनाई हुई जागरण घटिका ( जगाने की पड़ी ) भवि वस्तुओं को निद्रा से बगाने भावि कार्य के मम्म का व्यय कर के लेते हैं तथा रात्रि में जिसने बजे पर उठना हो उसी समय की जगाने की 'चाबी लगा कर घड़ी को रख देते हैं और ठीक समय पर घड़ी की आगाज़ को सुनकर उठ बैठते हैं, परन्तु हमारे प्राचीन आर्यावर्धनिवासी जन अपनी योगादि विद्या के ब से उछ जागरण आदि का सब काम लेते थे, बिस में उन की एक पाई भी खर्च नहीं होवी भी । ( प्रश्न) आप इस बात को क्या हमें मत्यक्ष कर बता सकते हैं कि आर्या निवासी प्राचीन मम अपनी योगादि विद्या के पत्र से उक्त जागरण भाषिका सब काम खेते मे' (उत्तर) हाँ, इम अवश्य बतला सकते है, क्योंकि गृहों के लिये हिसकारी इस प्रकार की बातों का प्रकट करना हम अत्यावश्यक समझते हैं, मि बहुत से मोगों का यह मन्वष्य होता है कि इस प्रकार की गोप्य बातों को प्रकट नहीं करना चाहिये परन्तु हम ऐसे विचार को बहुत तुच्छ तथा सङ्कीर्णमता का चिह्न समझते हैं, देखो ! इसी विचार से वो इस पवित्र देश की सब विद्यायें नष्ट हो गई। पाठकवृन्द ! तुम को रात्रि में जिसने बसे पर उठने की आवश्यकता हो उस के लिये पेसा करो कि सोने के समय प्रथम दो चार मिनट तक चित्त को स्थिर करो, विछौने पर सेट कर तीन या सात बार ईश्वर का माम को अर्थात् नमस्कारमन को पढ़ो, फिर फिर अपना नाम ले कर मुख से यह हो कि हम को इतने बच्चे पर ( जितने बजे पर तुम्हारी उठने की इच्छा हो ) उठा देना ऐसा कह कर सो बाभो, यदि तुम को उक कार्य के बाद दक्ष पाँच मिनट तक निवा न धाबे यो पुन नमस्कारमा को निजा आने तक मन में ही ( होठों को न हिला कर ) पड़त रहो', ऐसा करने से तुम रात्रि में अभीष्ट समय पर भाग कर उठ सकते हो, इस में सन्देह नहीं है ' ॥ १ कि मन में म पड़ने पर्य यह है कि-ईश्वरनमस्कार के पीछे सब को अनेक बायों में नहीं जाना चाहिये अर्थात् अन्य किसी बात का धारण नहीं करना चाहिने ॥ १- हायकाल के किये आरसी की क्या मावश्यकता है भवात् इस बात की जो परीक्षा करन्या मर
SR No.010863
Book TitleJain Dharm Shikshavali Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherShivprasad Amarnath Jain
Publication Year1923
Total Pages788
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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