SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 716
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ६८४ जैनसम्प्रदामशिक्षा || को सुन कर कापियों ने भी उन की बात को स्वीकृत किया, इस लिये एक एक ऋषि के बारह २ शिष्य हो गये, बस वे ही भम यजमान कहलाते हैं । कुछ दिन पीछे वे सब खंडेला को छोड़ कर डीडवाणा में था पसे और चूंकि वे बहतर स्वाँपों के उमराव ने इस सिये वे बहतर सौंप के डी महेश्वरी कहलाने लगे, फार मैं ( कुछ काल के पीछे ) इन्हीं बहत्तर साँपों की वृद्धि ( बढ़ती ) हो गई भर्षात् वे भने मुल्कों में फैल गये, वर्तमान में इन की सब खाँपे करीब ७५० है, मद्यपि उन सब खाँपों के नाम हमारे पास विद्यमान ( मौजूद ) हैं तथापि विस्तार के भय से उन्हें यहाँ नहीं किलते हैं। महश्वरी वैश्यों में भी यद्यपि बड़े २ श्रीमान् हैं परन्तु शोक का विषय है कि - विद्या इन लोगों में भी बहुत कम देखी जाती है, विशेप कर मारवाड़ में दो हमारे पोसगारू बन्धु और महेश्वरी बहुत ही कम विज्ञान देखने में जाते हैं, विद्या के न होने से इनक धन मी ब्यर्थ कामों में बहुत उठता है परन्तु विधावृद्धि आदि शुभ कार्यों में से होय कुछ भी खर्च नहीं करते हैं, इस लिये हम अपने मारवाड़ निवासी महेश्वरी सजनों से भी प्रार्थना करते हैं कि-- मथम वो उन को विद्या की वृद्धि करने के लिये कुछ न कुछ भवश्य प्रबन्ध करना चाहिये, दूसरे - अपने पूर्वजों ( बड़ेरों वा पुरुषाओं) के व्यवहार की तरफ ध्यान देकर भौसर और विवाह भावि में व्यर्थव्यम (फिजूस्वर्धी ) को बन्द कर देना चाहिये, तीसरे - कन्याविक्रय, माळविवाह, वृद्धविवाह तथा विवाद में ग्रा सियों का गाना आदि कुरीतियों को बिछकुछ उठा देना चाहिये, चौथे-परिणाम में क्लेश वेने गात्रे तथा निन्दनीय ब्यापारों को छोड़ कर शुभ वाणिज्य तथा कला कौशल के प्रचार की ओर ध्यान देना चाहिये कि जिस से उन की कक्ष्मी की वृद्धि हो और देव की भी हितसिद्धि हो, पाँचवें—सांसारिक पदार्थ और उन की तृष्णा को धन का हेतु मान कर उन में भविसय भासक्ति का परित्याग करना चाहिये, छठे त्रम्म को सांसारिक भा पारलौकिक सुख के सामन में हेतुसूत जान कर उस का उचित रीति से तथा सन्मार्ग से ही भ्यय करना चाहिये, बस आया है कि हमारी इस मार्थना पर ध्यान दे कर इसी अनुसार बर्चाय कर हमारे महेश्वरी आसा सांसारिक सुख को माठ कर पारलौकिक मुख के भी अधिकारी होंगे ! के यह पथम अध्याय का माहश्वरी मोत्पतिवर्णन नामक चौथा प्रकरण समाप्त हुआ "
SR No.010863
Book TitleJain Dharm Shikshavali Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherShivprasad Amarnath Jain
Publication Year1923
Total Pages788
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy