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________________ पञ्चम अध्याय ॥ ६८३ सहित शिव जी पधारे हैं, तब वे सन स्त्रिया आ कर पार्वती जी के चरणो का स्पर्श करने लगी, उन की श्रद्धा को देख कर पार्वती जी ने उन्हें आशीर्वाद दिया कि-"तुम सौभाग्यवती धनवती तथा पुत्रवती हो कर अपने २ पतियों के सुख को देखो और तुम्हारे पति चिरञ्जीव रहे" पार्वती जी के इस वर को सुन कर रानिया हाथ जोड़ कर कहने लगी कि-“हे मात.। आप समझ कर वर देओ, देखो ! यहाँ तो हमारे पतियों की यह दशा हो रही है" उन के वचन को सुन कर पार्वती जी ने महादेव जी से प्रार्थना कर कहा कि-"महाराज! इन के शाप का मोचन करो" पार्वती जी की प्रार्थना को सुनते ही शिव जी ने उन सब की मोहनिद्रा को दूर कर उन्हें चैतन्य कर दिया, वस वे सब सुभट जाग पड़े, परन्तु उन्हो ने मोहवश शिव जी को ही घेर लिया तथा सुजन कुँवर पार्वती जा के रूप को देख कर मोहित हो गया, यह जान कर पार्वती जी ने उसे शाप दिया कि-"अरे मॅगते ! तू माँग खा" बस वह तो जागते ही याचक हो कर माँगने लगा, इस के पीछे वे वहत्तरो उमराव बोले कि-"हे महाराज! हमारे घर में अब राज्य ता रहा नहीं है, अब हम क्या करें? तब शिव जी ने कहा कि-"तुम क्षत्रियत्व तथा शल को छोड़ कर वैश्य पद का ग्रहण करो" शिव जी के वचन को सब उमरावों ने अङ्गीकृत किया परन्तु हाथों की जड़ता के न मिटने से वे हाथो से शस्त्र का त्याग न कर सके, तब शिव जी ने कहा कि-"तुम सब इस सूर्यकुण्ड में लान करो, ऐसा करने से तुम्हारे हाथो की जड़ता मिट कर शस्त्र छूट जावेंगे" निदान ऐसा ही हुआ कि सूर्यकुण्ड में स्नान करते ही उन के हाथों की जड़ता मिट गई और हाथो से शस्त्र छूट गये, तब उन्हो ने तलवार की तो लेखनी, भालों की डडी और ढालो की तराजू बना कर वाण पद (वैश्य पद ) का ग्रहण किया, जब ब्राह्मणो को यह खवर हुई कि-हमारे दिये हुए शाप का मोचन कर शिव जी ने उन सब को वैश्य बना दिया है, तब तो वे (ब्राह्मण ) वहाँ आ कर शिव जी से प्रार्थना कर कहने लगे कि "हे महाराज! इन्हों ने हमारे यज्ञ का विध्वस किया था अत. हम ने इन्हें शाप दिया था, सो आप ने हमारे दिय हुए शाप का तो मोचन कर दिया और इन्हें वर दे दिया, अव कृपया यह बतलाइये कि हमारा यज्ञ किस प्रकार सम्पूर्ण होगा" ब्राह्मणों के इस वचन को सुन कर शिव जी ने कहा कि-"अभी तो इन के पास देने के लिये कुछ नहीं है परन्तु जब २ इन के घर में मङ्गलोत्सव होगा तब २ ये तुम को श्रद्धानुकूल यथाशक्य द्रव्य देते रहेंगे, इस लिये अव तुम भी इन को धर्म में चलाने की इच्छा करो" इस प्रकार वर दे कर इधर तो शिव जी अपने लोक को सिवारे, उधर वे बहत्तर उमराव छःवों ऋषियो के चरणो में गिर पड़े और शिष्य बनने के लिये उन से प्रार्थना करने लगे, उन की प्रार्थना
SR No.010863
Book TitleJain Dharm Shikshavali Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherShivprasad Amarnath Jain
Publication Year1923
Total Pages788
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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