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________________ ६५० बैनसम्पदामविचा छोगों का प्रतिपालन किया था और अपने साधर्मी भाइयों को बारह महीनों (साल भर ) तक अन्न विमा मा तथा वृष्टि होने पर सब को मार्गम्पय सभा स्लेवी मावि करने के लिये ब्रम्प दे दे कर उन को अपने २ स्थान पर पहुँचा दिया था, सत्य है कि सच्चा सामर्मिमात्सम्म यही है । में माट लोग की विदित हो कि मोसमाठों के गोत्रों के इतिहासों की महिमाँ महामो लोगों के पास भी मौर में योग मजमानों से बहुत कुछ व्रम्म पाते थे ( जैसे कि वर्तमान मनमानों से ब्रष्य पाते हैं ), परन्तु न मालूम कि उन पर कर्मचंद क्यों कड़ी ट हुई जो उन्हों ने छठ करके उन सब ( महात्मा मेगों ) को सूचना दी कि - "भाष सब लोग पधारें क्योंकि मुझ को मोसवालों के गोत्रों का वर्णन सुनने की अत्यन्त अभिलापा है, आप लोगों के पधारने से मेरी उक्त अभिलापा पूर्ण होगी मैं इस रूप के बदले में आप लोगों का प्रम्यादि से मगायोम्म सस्कार करूँगा " बस इस वचन को सुन कर सब महात्मा मा गये और श्षर तो उन को कर्मचन्द ने भोजन करने के लिये बिठा दिया, उमर उन के नौकरों ने सब वहियों को लेकर कुप में डाल दिया, क्योंकि कर्मचंद ने अपने नौकरों को पहिले ही से ऐसा करने के लिये भाझा दे रक्खी थी, इस बात पर यद्यपि महात्मा लोग अप्रसन वो बहुत हुए परन्तु मिचारे कर ही क्या सकते भे, क्योंकि कर्मचंव के प्रभाव के आगे उन का क्या बच चल सकता था, इस खिये ये सब छाचार हो कर मन ही मन में दुःशाप देते हुए चले गये, कर्मचंद भी उन की श्रेष्ठा को देख कर उन से बहुत अमसन्न हुए, मानो उन के कोपानल में और भी व की आहुति दी, भस्तु किसी विज्ञान् ने सत्य ही कहा है कि-"न निर्मित केन न चापि दृष्ट । भुवोऽपि नो हेममम कुरन ॥ तथापि तृष्णा रघुनन्वनस्य । विनाशकाले विपरीतबुद्धि " ॥ १ ॥ भर्थात् सुबर्ण के हरिष को न तो किसी ने कभी बनाया है और न उसे कभी किसी ने देखा वा सुना ही है ( अर्थात् सुबर्ण के मृग का होना सर्वमा असम्भव है ) परन्तु तो भी रामचन्द्र जी को उस के लेने की अभिस्मपा हुई ( कि वे उसे पकड़ने के लिये उस के पीछे दौड़े) इस से सिद्ध होता है कि- मिनाकाल के जाने पर मनुष्य की बुद्धि भी विपरीत हो जाती है || १ || बस यही वाक्य कर्मचन्द में भी परि सार्थ हुआ, देखो ! जब तक इन के पूर्व पुष्प की मभक्ता रही तब तक तो इन्हों ने उस के प्रमान से भठारह रजवाड़ों में मान पाया तथा इन की बुद्धिमत्ता पर प्रसन्न होकर बीकानेर महाराज भी रामसिंह जी साहब से मांग पर मादशाह अकबर ने पास रक्सा, परन्तु जब विनासकार उपस्थित हुआ तब इन की बुद्धि भी इन को अपन विपरीत हो १- महारम् प परवर माके में इनकी जमानी पूर्वगत् अब भी रिचमान है इसी प्रकार के अम्यान महात्माओं के भाव भी यताम्बी की वह हम मे मा है
SR No.010863
Book TitleJain Dharm Shikshavali Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherShivprasad Amarnath Jain
Publication Year1923
Total Pages788
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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