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________________ पञ्चम अध्याय ॥ ६४९ कर्मचन्द बच्छावत ने बीकानेर में जातिसम्बंधी भी अनेक रीति रिवाजों में संशोधन किया, वर्तमान में जो उक्त नगर में ओसवालों में चार टके की लावण बॉटने की प्रथा जारी है उस का नियम भी किसी कारण से इन्हीं ( कर्मचन्द ) ने बॉघा था । मुसलमान समखाँ को जब सिरोही देश को लूटा था उस समय अनुमान हजार वा ग्यारह सौ जिनप्रतिमायें भी सर्व धातु की मिली थी, जिन को कर्मचन्द बच्छावत ने लाकर बीकानेर में श्री चिन्तामणि स्वामी के मन्दिर में तलघर में भण्डार करके रख दिया था जो कि अब भी वहाँ मौजूद है और उपद्रवादि के समय में भण्डार से सघ की तरफ से इन प्रतिमाओं को निकाल कर अष्टाही महोत्सव किया जाता है तथा अन्त में जलयात्रा की जाती है, ऐसा करने से उपद्रवादि अवश्य शान्त हो जाता है, इस विषय का अनुभव प्रायः हो चुका है और यह बात वहाँ के लोगों में प्रसिद्ध भी है। __ कर्मचद बच्छावत ने उक्त ( बीकानेर ) नगर में पर्दूषण आदि सब पर्यों में कारू जना ( लहार, घुथार और भड़पूंजे आदि ) से सब कामो का कराना बंद करा दिया था तथा उन के लागे भी लगवा दिये थे और जीवहिंसा को बंद करवा दिया था। ___ पैतीस की साल में जब दुर्भिक्ष ( काल ) पड़ा था उस समय कर्मचन्द ने बहुत से अजब्ब को छाप बोलाए गुरु गच्छ राज गती ॥१॥ ए जु गुज्जर ते गुरुराज चले विच मे चोमास जालोर रहे । मेदिनी तट मडाण कियो गुरु नागोर आदर मान लहै ॥ मारवाड रिणी गुरु वन्द को तरसै सरसै विच वेग वहै । हरख्यो सघ लाहोर आय गुरू पतिसाह अकब्वर पाव ग्रहै ॥ २ ॥ ए जू साह अकबर पवर के गुरु सूरत देखत ही हरखे । हम जोग जती सिध साध व्रती सब ही पट दरशन के निरखे ॥ (तीसरी गाथा के उत्तरार्ध का प्रथम पाद ऊपरली पडत में न होने से नहीं लिख सके हैं )। तप जप्प दया धर्म धारण को जग कोइ नहीं इन के सरखे ॥ ३ ॥ गुरु अम्मृत वाणि सुणी सुलतान ऐसा पतिसाह हुकम्म दिया। सब आलम माँहि अमार पलाय वोलाय गुरू फुरमाण दिया ॥ जग जीव दया धर्म दासिन ते जिनशासन में जु सोभाग लिया। समे सुदर के गुणवत गुरू दृग देखत हरषित होत हिया ॥ ४ ॥ ए जु श्री जी गुरु धर्म ध्यान मिलै सुलतान सलेम अरज करी । गुरु जीव प्रेम चाहत है चित अन्तर प्रति प्रतीति घरी ॥ कर्मचद बुलाय दियो फुरमाण छोडाय खभाइत की मछरी । समे सुदर के सव लोकन में जु खरतर गच्छ की ख्यांत खरी ॥५॥ ए जु श्री जिनदत्त चरित्र सुणी पतिसाह भए गुरु राजी ये रे । उमराव सवे कर जोड खरे पभणे आपणे मुख हाजी ये रे ॥ जुग प्रधान का ए गुरु कू गिगढ दु गिगड दुधु धु पाजीये रे । समय सुदर के गुरु मान गुरू पतिसाह अकव्वर गाजीये रे ॥ ६॥ एज ग्यान विज्ञान कला गुण देख मेरा मन रींशीये जू । हमाउ को नदन एम अखै मानसिंह पटोधर कीजीए ज॥ पतिसाह हजूर थप्यो सघ सूरि मडाण मत्री सर वीजीएजू । जिण चद गुरू जिण सिंह गुरु चद सर ज्य प्रतापी ए ज् ॥ ७ ॥ ए जू रीहड वश विभूपण हस खरतर गच्छ समुद्र ससी । प्रतप्यो जिण माणिक सरि के पाट प्रभाकर ज्यू प्रणम् उलसी ॥ मन शुद्ध अकबर मानत है जग जाणत है परतीत इसी। जिण चद मुणिंद चिर प्रतपो समें सुदर देत असीस इमी ॥ ८ ॥ इति गुरुदेवाष्टक सम्पूर्णम् ॥ ८२
SR No.010863
Book TitleJain Dharm Shikshavali Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherShivprasad Amarnath Jain
Publication Year1923
Total Pages788
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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