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________________ पञ्चम अध्याय ॥ ६३७ चार्य श्री जिनदत्त सूरि महाराज ने सवा लाख श्रावकों को प्रतिबोध दिया था अर्थात् उन का माहाजन वश और अनेक गोत्र स्थापित किये थे, उन में से जिन २ का प्रामाणिक वर्णन हम को प्राप्त हुआ उन गोत्रों का वर्णन हम ने कर दिया है, अब इस के आगे खरतरगच्छीय तथा दूसरे गच्छाधिपति जैनाचार्यों के प्रतिबोधित गोत्रों का जो वर्णन हम को प्राप्त हुआ है उस को लिखते है: चौदहवीं संख्या - साँखला, सुराणा गोत्र ॥ विक्रमसंवत् १२०५ ( एक हजार दो सौ पॉच) में पॅवार राजपूत जगदेव को पूर्ण तल्लगच्छीय कलिकाल सर्वज्ञ जैनाचार्य श्री हेमंचन्द्रसूरि जी महाराज ने प्रतिबोध देकर जैनी श्रावक किया था, जगदेव के सूर जी और सॉवल जी नामक दो पुत्र थे, इन में से सूर जी की औलादवाले लोग सुराणा कहलाये और साँवल जी की औलाद वाले लोग सॉंखला कहलाये ॥ पन्द्रहवीं संख्या - आघरिया गोत्र ॥ सिन्ध देश का राजा गोसलसिंह भाटी राजपूत था तथा उस का परिवार करीब पन्द्रह सौ घर का था, विक्रमसंवत् १२१४ ( एक हजार दो सौ चौदह ) में उन सब को नरमणि मण्डित भालस्थल खोड़िया क्षेत्रपालसेवित खरतरगच्छाधिपति जैनाचार्य श्री जिनचन्द्रसूरिजी महाराज ने प्रतिबोध देकर उस का माहाजन वश और आघरिया गोन्न स्थापित किया || १ - इन का जन्म विक्रमसंवत् ११४५ के कार्तिक सुदि १५ को हुआ, ११५४ मे दीक्षा हुई, ११६६ में सूरि पद हुआ तथा १२२९ में स्वर्गवास हुआ, ये जैनाचार्य बडे प्रतापी हुए हैं, इन्हों ने अपने जीवन मैं साढे तीन करोड श्लोकों की रचना की थी अर्थात् संस्कृत और प्राकृत भाषा में व्याकरण, कोश, काव्य, छन्द, योग और न्याय आदि के अनेक ग्रन्थ बनाये थे, न केवल इतना ही किन्तु इन्हों ने अपनी विद्वत्ता के वल से अठारह देशों के राजा कुमारपाल को जैनी बना कर जैन मत की बडी उन्नति की थी तथा पाटन नगर में पुस्तकों का एक वडा भारी भण्डार स्थापित किया था, इन के गुणों से प्रसन्न होकर न केवल एतद्देशीय (इस देश के ) जनों ने ही इन की प्रशसा की है किन्तु विभिन्न देशों के विद्वानों ने भी इन की मुक्त कण्ठ से प्रशंसा की है, देखिये ! इन की प्रशंसा करते हुए यूरोपियन स्कालर डाक्टर पीटरसन साहब फरमाते हैं कि-“श्रीहेमचन्द्राचार्य जी की विद्वत्ता की स्तुति जवान से नहीं हो सकती है" इत्यादि, इन का विशेष वर्णन देखना हो तो प्रवन्धचिन्तामणि आदि ग्रन्थों में देख लेना चाहिये ॥ २–इन का जन्म विक्रमसंवत् ११९१ के भाद्रपद सुदि ८ के दिन हुआ, १२११ मे वैशास्त्र सुदि ५ को ये सूरि पद पर बैठे तथा १२२३ मे भाद्रपद यदि १४ को दिल्ली में इन का स्वर्गवास हुआ, इन को दादा साहिव श्री जिन दत्त सूरि जी महाराज ने अपने हाथ से सवत् १२११ में वैशाख सुदि ५ के दिन विक्रमपुर नगर में (विक्रमपुर से बीकानेर को नही समझना चाहिये किन्तु यह विक्रमपुर दूसरा नगर था )
SR No.010863
Book TitleJain Dharm Shikshavali Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherShivprasad Amarnath Jain
Publication Year1923
Total Pages788
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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