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________________ चतुर्थ अध्याय ।। ४९३ डालने से आँखों के व्रण मिट जाते हैं और कुछ भी तकलीफ नहीं होती है, अथवा गूंदी (गोंदनी) की छाल को पीस कर उस का ऑख पर मोटा लेप करने से आँख को फायदा होता है। ___७-जब दाने फूट कर तथा किचकिचा कर उन में से पीप वा दुर्गन्धि निकलती है तब मारवाड़ देश में पञ्चवल्कल का कपडछान चूर्ण कर दबाते है अथवा कायफल का चूर्ण दबाते है, सो वास्तव में यह चूर्ण उस समय लाभ पहुंचाता है, इस के सिवायरसी को धो डालने के लिये भी पञ्चवल्कल का उकाला हुआ पानी अच्छा होता है। ८-कारेली के पत्तों का क्वाथ कर तथा उस में हलदी का चूर्ण डाल कर उसे पिलाने से चमड़ी में घुसे हुए ( भीतरी ) व्रण मिट जाते है तथा ज्वर के दाह की भी शान्ति __ हो जाती है। ९-यदि इस रोग में दस्त होते हों तो उन के बद करने की दवा देनी चाहिये तथा यदि दस्त का होना बन्द हो तो हलका सा जुलाब देना चाहिये। १०-जब फफोले फूट कर खलॅट आ जावें तथा उन में खाज (खुजली ) आती हो तब उन्हें नख से नहीं कुचरने देना चाहिये किन्तु उन पर मलाई चुपडनी चाहिये, अथवा केरन आइल और कार बोलिक आइल को लगाना चाहिये, जब फफोले फूट कर मुझाने लगें तब उन पर चावलों का आटा अथवा सफेदा भुरकाना चाहिये, ऐसा करने से चढे ( चकत्ते ) और दाग नहीं पड़ते है। विशेष सूचना-यह रोग चेपी है इस लिये इस रोग से युक्त पुरुष से घर के आदमियों को दूर रहना चाहिये अर्थात् रोगी के पास जिसका रहना अत्यावश्यक (बहुत ज़रूरी) ही है उस के सिवाय दूसरे आदमियों को रोगी के पास नही जाना चाहिये, क्योंकि प्राय. यह देखा गया है कि रोगी के पास रहनेवाले मनुष्यों के द्वारा यह चेपी रोग फैलने लगता है अर्थात् जिन के यह शीतला का रोग नहीं हुआ है उन बच्चों के भी यह रोग रोगी के पास रहनेवाले जनों के स्पर्श से अथवा गन्ध से हो जाता है। १-वड (वरगद), गूलर, पीपल, पारिस पीपल और पाखर (प्लक्ष), ये पाच क्षीरी वृक्ष अर्थात् दूधवाले वृक्ष है, इन पाचों की छाल (वक्कल) को पञ्चवल्कल कहते हैं । २-हलका सा जुलाव देने का प्रयोजन यह है कि उक्त रोग के कारण रोगी को निर्वलता (कमजोरी) हो जाती है इस लिये यदि उस में तीक्ष्ण (तेज) जुलाव दिया जावेगा तो रोगी उस का सहन नहीं कर सकेगा और निर्वलता भी अधिक दस्तों के होने से विशेप वढ जावेगी । ३-इन को पूर्वीय (पूर्व के) देशो मे खुट कहते हैं अर्थात् व्रण के ऊपर जमी हुई पपडी ॥ ४-क्योंकि नख (नासून ) से कुचरने (खुजलाने) से फिर व्रण (घाव) हो जाता है तथा नख के विप का प्रवेश होने से उस मे और भी सरावी होने की सम्भावना रहती है ।।
SR No.010863
Book TitleJain Dharm Shikshavali Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherShivprasad Amarnath Jain
Publication Year1923
Total Pages788
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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