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________________ चतुर्थ अध्याय ॥ ४६७ उम्र (बड़े वा तेज़ ) सन्निपात में एक महीनेतक खूब होशियारी के साथ पथ्य तथा दवा का वर्ताव करना चाहिये तथा यह भी स्मरण रखना चाहिये कि सोलह सेर जल का उबालने से जब एक सेर जल रह जाये तब उस जल को रोगी को देना चाहिये, क्योकि यह जल दस्त, वमन (उलटी ), प्यास तथा सन्निपात में परम हितकारक है अर्थात् यह सौ मात्रा की एक मात्रा है । इस के सिवाय जब तक रोगी का मल शुद्ध न हो, होश न आवे तथा सब इन्द्रियां निर्मल न हो जावें तब तक और कुछ खाने पीने को नही देना चाहिये' अर्थात् रोगी को इस रोग में उत्कृष्टतया ( अच्छे प्रकार से ) बारह लघन अवश्य करवा देने चाहिये, अर्थात् उक्त समय तक केवल ऊपर लिखे हुए जल और दवा के सहारे ही रोगी को रखना चाहिये, इस के बाद मूग की दाल का, अरहर ( तूर ) की दाल का तथा खारक ( छुहारे ) का पानी देना चाहिये, जब खूब ( कडक कर ) भूख लगे तत्र ढाल के पानी में भात को मिला कर थोड़ा २ देना चाहिये, इस के सेवन के २५ दिन बाद देश की खुराक के अनुसार रोटी और कुछ घी देना चाहिये । कर्णक नाम का सन्निपात तीन महीने का होता है, उस का खयाल उक्त समय तक वैद्य के वचन के अनुसार रखना चाहिये, इस बीच में रोगी को खाने को नहीं देना चाहिये, क्योकि सन्निपात रोगी को पहिले ही खाने को देना विष के तुल्य असर करता है, इस रोग में यदि रोगी को दूध दे दिया जावे तो वह अवश्य ही मर जाता है । सन्निपात रोग काल के सदृश है इस लिये इस में सप्तस्मरण का पाठ और दान पुण्य आदि को भी अवश्य करना चाहिये, क्यो कि सन्निपात रोग के होने के बाद फिर उसी शरीर से इस ससार की हवा का प्राप्त होना मानो दूसरा जन्म लेना है । इस वर्त्तमान समय में विचार कर देखने से विदित होता है कि - अन्य देशों की अपेक्षा मरुस्थल देश में इस के चक्कर में आ कर वचनेवाले बहुत ही कम पुरुष होते हैं, इस का कारण व्यवहार नय की अपेक्षासे हम तो यही कहेंगे कि उन को न तो ठीक तौर से ओपवि ही मिलती है और न उन की परिचर्या (सेवा) ही अच्छे प्रकार से की जाती है, बस इसी का यह परिणाम होता है कि उन को मृत्यु का ग्रास घनना पड़ता है । पूर्व समय में इस देश के निवासी धनाढ्य ( अमीर ) सेठ और साहूकार आदि ऊपर १ - क्योंकि मल की शुद्धि और इन्द्रियों के निर्मल हुए विना आहार को दे देने से पुन दोपों के अधिक कुपित हो जाने की सम्भावना होती है, सम्भावना क्या-दोप कुपित हो ही जाते ह ॥ २-उत्कृष्टतया वारह लघनों के करवा देने से मल और कुपित दोपों का अच्छे प्रकार से पाचन हो जाता है, ऐसा होने से जठराभि में भी कुछ वल आ जाता है ॥
SR No.010863
Book TitleJain Dharm Shikshavali Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherShivprasad Amarnath Jain
Publication Year1923
Total Pages788
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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