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________________ ३७२ चैनसम्प्रदाय शिक्षा || बहुत जोर से क्या है बिस से मगन सभा फेफसे भावि आवश्यक मार्गो पर अधिक दबाव होने से सम्बधी रोग होता है, भँवर जाते हैं, कानों में आवान होती है, - खों में अमेरा छा जाता है, मूल मारी जाती है, तथा बेचैनी होती है तथा क्षति से बढ़कर मानसिक मनुष्य के जुस्सा भर जाता है जिस से बेहोसी हो जाती है तथा कभी २ मृत्यु भी हो जाती है, मानसिक विपरीत परिश्रम करनेसे अर्थात् चिन्ता फिन ध्यादि से मंग सन्वष्ठ हो बाते हैं, भजीण होता है, नींद नहीं जाती है कसरत करने से मगम में इस के सिवाम विवाह के विषय में एक बात और भी बगरम ध्यान में रखने योग्य है कि दोनों ओर से ऐसा कोई काम नहीं होना चाहिये कि जिस से आपस में प्रेम न रहे जसे कि छोग मराठों में मास मीर परो से भादि कि २ सी बातों में ऐसे देते है कि जिन से धमधियों के म में अन्तर पर जाता है कि जिस के कारण देने पर भी आनन्द नहीं भाता है, यह यात सच है कि-प्रेम के बिना सर्वस्व मिलने पर भी प्रसन्नता नहीं होती है भव प्रीतिपूर्वक प्रत्येक कार्य को करना चाहिये कि जिस से दोनों ही तरफ असा हो और पर्ष भी समर्थ म से मम्म सोचने की बा है कि-को सम्बधियों में से जब एक की बुराई हुई तो क्या वह अपना सम्बभी नहीं है? क्या उस की बदनामी से अपनी बदनामी नहीं हुई सत्र में हो जो छोग इस बात पर ध्यान नहीं देते है उन सम्बंधियों पर भवा भेजना उचित है, क्योकि विवाह का समय आपस में जानन्व तथा प्रेमरस के वर छाने भीर मधुर वार्ता करने का है, एक दूसरे के पार कर युद्ध का सामान इच्छा पर देने का यह समय नहीं है, इस किये भो छोय ऐसा करते है वह जम की सर्वधा मूर्खता श्री बात है, अतः दोनों को एक दूसरे की भम्बई का वन मन से विचार कर कार्यो को करग पर ले उचित है, दोनों सम्बंधियों को यह भी उचित है कि यो मनुष्य मन से दोनों को भूर उडाते है तथा बाहर से बहुत सी मम्रो पत्तो करते व जम की बात पर कदापि ध्यान न द क्योकि इस संवार में दूसरे को सुधामद आदि के द्वारा निरन्तर स करने के किसिक मोग बहुत है परन्तु जो बचन मुक्मे में चाहे प्रेम ही हो परन्तु पान में कमाण करनेवाला से उसके बोलने तथा भुमन बाले पुरुष तुर्बम है, देखो! मनुषा गुप्त भ्रभु तथा कुछ कोम सम्मन तो में हो मिष्मत है भीर पीछे बुराई निकालकर बाते हे परन्तु परपुरुप मुँह पर प्रत्येक वस्तु के गु दोषों का दमन करते है और परोक्ष में प्रशंसा ही करते है, इन बातों को विचार कर दोनों समपियों को योग्य है कि दोनों समय में प्रत्येक बात का साम निर्णय कर जो दोनों के लिये लाभदायक दोनों आमन्द में रहे क्योंकि यही विवाह और सम्बंध का हो उसी का अमीकार करें जिससे है। दोष और शुभ बताये जाने वो विवाहको रीति जो इस समय पिट रही है वह सपा को संप से बता दी गई, बाद इस का पूरे घर से वर्णन कर इस एक अन्य बन परतुद्धिमान पुरुष मात्र हो वत्त्व को समझ से क्त अतिसंक्षेप ही इस का वर्णन किया है आता है कि पाइप ने दो मन से अपने दिवाहित का विचार कर तुम और महिमा का भाग शुभकारक सम्माका सम्बन रंग
SR No.010863
Book TitleJain Dharm Shikshavali Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherShivprasad Amarnath Jain
Publication Year1923
Total Pages788
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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