SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 403
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ चतुर्थ अध्याय ॥ ३७१ ८- कसरत- - कसरत से होनेवाले लाभों का वर्णन पहिले कर चुके है तथा उस का विधान भी लिख चुके है, उसी नियम के अनुसार यथाशक्ति कसरत करने से बहुत बहुत से लाभ होता है, परन्तु बहुत मेहनत करने से तथा आलसी होकर बैठे रहने से रोग होते है, अर्थात् बहुत परिश्रम करने से बुखार, अजीर्ण, ऊरुस्तम्भ ( नीचे के भाग का रह जाना ) और श्वास आदि रोगो के होने की सभावना होती है तथा आलसी होकर बैठे रहने से - अजीर्ण, मन्दाग्नि, मेदवायु और अशक्ति आदि रोग होते है, भोजन कर कसरत करने से–कलेजे को हानि पहुँचती है, भारी अन्न खाकर कसरत करने से - आमवात का प्रकोप होता है । कसरत दो प्रकार की होती है- एक शारीरिक ( शरीर की ) और दूसरी मानसिक ( मन की ), इन दोनों कसरतों को पूर्व लिखे अनुसार अपनी शक्ति के अनुसार ही करना चाहिये, क्योंकि हद्द से अधिक शारीरिक कसरत तथा परिश्रम करने से हृदय में व्याकुलता ( धड़धड़ाहट ) होती है, नसो में रुधिर बहुत शीघ्र फिरता है, श्वासोच्छ्रास है परन्तु उस सभा के बैठनेवाले जो सभ्य कहलाते हैं कुछ भी लज्जा नहीं करते हैं, वरन प्रसन्न चित्त होकर हँसते २ अपना पेट फुलाते और उन्हें पारितोषिक प्रदान करते हैं, प्यारे सुजनो ! इन्हीं व्यर्थ वातों के कारण भारत की सन्तानों का सत्यानाश मारा गया, इस लिये इन मिथ्या प्रपञ्चों का शीघ्र ही त्याग कर दीजिये कि जिन के कारण इस देश का पटपड हो गया, कैसे पश्चात्ताप का स्थान है कि --जहा प्राचीन समय में प्रत्येक उत्सव में पण्डित जनों के सत्योपदेश होते थे वहा भव रण्डी तथा लौंडों का ना होता है तथा भाति २ की नकलं आदि तमाशे दिखलाये जाते हैं जिन से अशुभ कर्म वैधता है, क्योंकि धर्मशास्त्रों मे लिखा है कि- नकल करने से तथा उसे देखकर खुश होने से बहुत अशुभ कर्म ता है, हा शोक ! हा शोक !! हा शोक !!! इस के सिवाय घोडा सा वृत्तान्त और भी सुन लीजिये और उसे सुनने से यदि लज्जा प्राप्त हो तो उसे छोडिये, वह यह है कि- विवाह आदि उत्सवों के समय स्त्रियों में बाजार, गली, कूचे तथा घर में फूहर गालियों अथवा गीतों के गाने की निकृष्ट प्रथा अविद्या के कारण चल पडी है तथा जिस से गृहस्थाश्रम को अनेक हानिया पहुच चुकी हैं और पहुँच रही हैं, उसे भी छोडना आवश्यक है, इस लिये आप को चाहिये कि इस का प्रबन्ध करें अर्थात् स्त्रियों को फूहर गालिया तथा गीत न गाने देवें, किन्तु जिन गीतों में मर्यादा के शब्द हो उन को कोमल वाणी से गाने दें, क्योंकि युवतियों का युवावस्था में निर्लन शब्दों का मुख से निकालना मानो वारूद की चिनगारी का छोड़ना है, इस के अतिरिक्त इस व्यवहार से स्त्रियों का स्वभाव भी विगड जाता है, चित्त विकारों से भर जाता है और मन विषय की तरफ दौडने लगता है फिर उस का साधना (कावू मे रखना) अत्यन्त ही कठिन वरन दुस्तर हो जाता है, इस लिये उचित है कि मन को पहिले ही से विषयरस की तरफ न झुकने देवे तथा यौवन रूपी मदवाले के हाथ मे विषयरस रूपी हथियार ठेके अपने हितकारी सद्गुणों का नाश न करावें, यदि मन को पहिले ही से इस से न रोका जावेगा तो फिर उस का रुकना अति कठिन हो जावेगा ।
SR No.010863
Book TitleJain Dharm Shikshavali Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherShivprasad Amarnath Jain
Publication Year1923
Total Pages788
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy