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________________ चतुर्थ अध्याय ॥ ३६९ २ - कच्ची खुराक से - अजीर्ण, दस्त, पेट का दुखना और कृमि आदि रोग होते है । ३ - रूखी खुराक से - वायु, शूल, गोला, दस्त, कब्जी, दम और श्वास आदि रोग उत्पन्न होते हैं । २० ४–वातल खुराक से-शूल, पेट में चूक, गोला तथा वायु आदि रोग उत्पन्न होते है । ५- बहुत गर्म खुराक से - खासी, अम्लपित्त ( खट्टी वमन ), रक्तपित्त ( नाक और मुख आदि छिद्रों से रुधिर का गिरना ) और अतीसार आदि रोग उत्पन्न होते है । ६ - बहुत ठंढी खुराक से - खासी, श्वास, दम, हांफनी, शूल, शर्दी और कफ आदि रोग उत्पन्न होते है । नई २ किस्म के बदलती है तथा अतर और फुलेल की लपटें उस के पास से चली आती हैं बस इन्हीं सव वातों को देखकर उन विद्याहीन स्त्रियों के मन में एक ऐसा बुरा असर पट जाता है कि जिस का अन्तिम ( आखिरी ) फल यह होता है कि बहुधा वे भी उसी नगर में खुलमखुल्ला लज्जा को त्याग कर रण्डो बन कर गुलछर्रे उठाने लगती हैं और कोई २ रेल पर सवार होकर अन्य देशों में जाकर अपने मन की आशा को पूर्ण करती है, इस प्रकार रण्डी के नाच से गृहस्थों को अनेक प्रकार की हानियां पहुचती हैं, इस के अतिरिक्त यह कैसी कुप्रथा चल रही है कि-जय दर्वाजों पर रण्डियां गाली गाती हैं और उधर से (घर की स्त्रियों के द्वारा ) उस का जवाब होता है, देखिये ! उस समय कैसे २ अपशब्द योले जाते हैं कि-जिन को सुन कर अन्यदेशीय लोगों का हॅसते २ पेट फूल जाता है और वे कहते हैं कि इन्हों ने तो रण्डियों को भी मात कर दिया, धिक्कार है ऐसी सास आदि को । जो कि मनुष्यों के सम्मुख (सामने) ऐसे २ शब्दों का उच्चारण करें ! अथवा रण्डियों से इस प्रकार की गालियों को सुनकर भाई बन्धु माता और पिता आदि की किञ्चित् भी लज्जा न करें और गृह के अन्दर घूघट बनाये रखकर तथा ऊची आवाज से बात भी न कह कर अपने को परम लज्जावती प्रकट करें ! ऐसी दशा में सच पूछो तो विवाह क्या मानो परदे वाली स्त्रियों ( शर्म रखनेवाली स्त्रियों) को जान बूझकर वेशर्म बनाना है, इस पर भी तुरी यह है कि खुश होकर रण्डियों को रुपया दिया जाता है ( मानो घर की लज्जावती स्त्रियों को निर्लन बनाने का पुरस्कार दिया जाता है ), प्यारे सुजनो ! इन रण्डियों के नाच के ही कारण जव मनुष्य वेश्यागामी ( रण्डीवाज ) हो जाते हैं तो वे अपने धर्म कर्म पर भी धता भेज देते है, प्राय आपने देखा होगा कि जहां नाच होता है वहा दश पाच तो अवश्य मुड ही जाते हैं, फिर जरा इस बात को भी सोचो कि जो रुपया उत्सवों और खुशियों में उन को दिया जाता है वे उस रुपये से वकराईद में जो कुछ करती हैं वह हत्या भी रुपया देनेवालों के ही शिर पर चढती है, क्योंकि - जब रुपया देनेवालों को यह वात प्रकट है कि यदि इन के पास रुपया न होगा तो ये हाथ मलमल कर रह जायेंगी और हत्या आदि कुछ भी न कर सकेंगी- फिर यह जानते हुए भी जो लोग उन्हें रुपया देते हैं तो मानो वे खुद ही उन से हत्या करवाते है, फिर ऐसी दशा में वह पाप रुपया देनेवालों के शिर पर क्यों न चटेगा ? अव कहिये कि यह कौन सी बुद्धिमानी है कि रुपया खर्च करना और पाप को शिर पर लेना! प्यारे सुजनो ! इस वेश्या के नृत्य से विचार कर देखा जावे तो उभयलोक के सुख नष्ट होते है और इस के समान कोई भी कुत्सित प्रथा नहीं है, यद्यपि बहुत से लोग इस दुष्कर्म की हानियों 2 ४७
SR No.010863
Book TitleJain Dharm Shikshavali Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherShivprasad Amarnath Jain
Publication Year1923
Total Pages788
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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