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________________ ७८] अनुत्तरोपपातिकदशासूत्रम्। [ तृतीयो वर्गः कर्मों की निर्जरा करने वाला है।" (श्री भगवान् के मुख से यह सुनकर फिर श्रेणिक गजा ने कहा) "हे भगवन् ! किस कारण से आप कहते हैं कि चौदह हजार श्रमणों में धन्य अनगार ही कठोर तप करने वाला और सब से बड़ा कर्मों की निर्जरा करने वाला है।" (श्रेणिक राजा के इस प्रश्न को सुनकर समाधान करते हुए श्री भगवान् कहने लगे) " हे श्रेणिक ! उस काल और उस समय में __एक काकन्दी नाम वाली नगरी थी। उसके बाहर सहस्राम्रवन नाम का उद्यान था । (यह उद्यान सब ऋतुओं में हरा-भरा रहता था । काकन्दी नगरी म भद्रा नाम की एक सार्थवाहिनी रहती थी। वह धन-धान्य से परिपूर्ण थी। उसका धन्य नाम वाला एक पुत्र था, जो यौवनावस्था में विवाहित होकर) श्रेष्ठ प्रासादों में सुख का अनुभव करता हुआ विचरण करता था। इसी समय कभी पूर्वानुपूर्वी से विचरता हुश्रा, एक ग्राम से दूसरे ग्राम में विहार करता हुआ मैं जहां काकन्दी नगरी थी और जहां सहस्राम्रवन उद्यान था वहीं पहुंच गया और यथा प्रतिरूप अवग्रह लेकर संयम और तप के द्वारा अपनी आत्मा की भावना करते हुए वहीं पर विचरने लगा। नगरी की जनता यह सुनकर वहां आई और मैंने उनको धर्म-कथा सुनाई । धन्य अनगार के ऊपर इसका विशेष प्रभाव पड़ा और वह तन्काल ही गृहस्थ को छोड़ कर साधु-धर्म में दीक्षित हो गया । (उसने तभी से कठोर-व्रत धारण कर लिया और केवल आचाम्ल से पारण करने लगा । वह जब आहार और पानी भिक्षा से लाता था तो मुझको दिखाकर) जिस प्रकार मर्प बिल में बिना किसी परिश्रम के घुस जाता है इसी प्रकार बिना किसी लालसा के आहार करता था । धन्य अनगार के पादों से लेकर सारे शरीर का वर्णन पूर्ववत् जानना चाहिए । उसके सब अङ्ग तप-रूप लावण्य से शोभित हो रहे थे । इसीलिए हे श्रेणिक ! मैंने कहा है कि चौदह हजार श्रमणों में धन्य अनगार महातप और महा-कर्मों की निर्जरा करने वाला है । जब श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के मुस से श्रेणिक राजा ने यह सुना और इस पर विचार किया नो हृदय में अत्यन्त प्रसन्न और सन्तुष्ट हुआ और इस प्रकार प्रफुल्लित होकर उगने अमण भगवान् महावीर स्वामी की तीन चार आदक्षिणा और प्रदक्षिणा की, उनकी वन्दना की और नमस्कार किया, वन्दना और नमस्कार कर जहां धन्य अनगार था वहां गया । वहां जाकर उसने धन्य अनगार
SR No.010856
Book TitleAnuttaropapatikdasha Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year1936
Total Pages118
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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