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________________ ६६] अनुत्तरोपपातिकदशासूत्रम् । [ तृतीयो वर्गः और शिरा वाले होने से इतना ही कहना चाहिए । मूलार्थ-धन्य अनगार की नासिका तप के कारण सूख कर ऐसी हो गई थी जैसी एक आम, अाम्रातक या मातुलुंग फल की फांक कोमल २ काट कर धूप में सुखा देने से हो जाती है। धन्य अनगार की आंखें इस प्रकार दिखाई देती थीं जैसा वीणा या वद्धीसग (वाद्य विशेष) का छिद्र हो अथवा प्रभात काल का टिमटिमाता हुआ तारा हो । इसी तरह उनकी आंखें भी भीतर धेस गई थीं। धन्य अनगार के कान ऐसे हो गये थे जैसे मूली का छिल्का होता है अथवा चिर्भटी की छाल होती है या करेले का छिल्का होता है। जिस प्रकार ये सूख कर मुरझा जाते हैं इसी प्रकार उनके कान भी मुरझा गये थे। धन्य अनगार का शिर ऐसा हो गया था जैसा कोमल तुम्बक, कोमल आलू और सेफालक धूप में रखे हुए सूख जाते हैं इसी प्रकार उनका शिर सूख गया था, रूखा हो गया था और उसमें केवल अस्थि, चर्म और नासा-जाल ही दिखाई देता था किन्तु मांस और रुधिर नाममात्र के लिये भी शेष नहीं रह गया था। इसी प्रकार सब अङ्गों के विषय में जानना चाहिए । विशेषता केवल इतनी है कि उदर-भाजन, कान, जिह्वा और ओंठ इनके विषय में 'अस्थि' नहीं कहना चाहिए, किन्तु केवल चर्म और नासा-जाल से ही ये पहचाने जाते थे ऐसा कहना चाहिए, क्योंकि इन अङ्गों में अस्थि नहीं होती। टीका-इस सूत्र मै धन्य अनगार की नासिका, कान, आंखें और शिर का वर्णन पूर्वोक्त अङ्गों के समान ही उपमा अलङ्कार के द्वारा किया गया है । शेष सब अर्थ मूलार्थ में ही स्पष्ट कर दिया गया है। इस सूत्र में अनेक प्रकार के कन्द, मूल और फलों से उपमा दी गई है । उनमें से आम्रातक, मूलक, वालुंकी और कारल्लक ये कन्द और फल विशेपों के नाम है । तथा 'आलुक-कन्द-विशेपस्तच्चानेकप्रकारकं भवति । परिग्रहार्थमेलालुकमित्युक्तम् ।' अर्थात् आलुक एक प्रकार का कन्द होता है, जो आजकल आलू के नाम से प्रसिद्ध है। इस प्रकार सूत्रकार ने धन्य अनगार के पैर से लेकर शिर तक सब अङ्गों का वर्णन कर दिया है। इसमें विशेषता केवल इतनी ही है कि उदर-भाजन,
SR No.010856
Book TitleAnuttaropapatikdasha Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year1936
Total Pages118
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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