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________________ २०] अनुत्तरोपपातिकदशासूत्रम् । [प्रथमो वर्गः 'ज्ञाताधर्मकथागसूत्र' का अध्ययन करेगे और उससे उनके ज्ञान-भण्डार में अधिक से अधिक वृद्धि होगी । अतः जिस ग्रन्थ के पढ़ने से सूत्र-सम्बन्धी सब बातों के ज्ञान के साथ कुछ और भी उपलब्ध हो, उसको क्यों न पढ़ा जाय । बुद्धिमान लोग सदा ऐसे ही कार्य किया करते हैं, जिनमे एक ही क्रिया से दो कार्यों का साधन हो। सारांश यह है कि उपादेय वस्तु का सदा आदर होना चाहिए और उक्त शास्त्र सर्वथा उपादेय है । अतः उसका स्वाध्याय भी अवश्य करना चाहिए । यहां पर हस्त-लिखित प्रतियों में उपलब्ध पाठ-भेद भी नहीं दिखाये गये हैं, क्योंकि वे सव 'ज्ञाताधर्मकथाग' के ही पद हैं। अब सूत्रकार शेप अध्ययनों के विषय मे कहते हैं:____एवं सेसाणवि अट्टण्हं भाणियव्वं, नवरं सत्त धारिणि-सुआ वेहल्ल-बेहासा चेलणाए।आइल्लाणं पंचण्हं सोलस वासातिं सामन्न-परियातो, तिण्हं बारस वासातिं दोण्हं पंच वासातिं । आइल्लाणं पंचण्हं आणुपुव्वीए उववायो विजये, वेजयंते, जयंते, अपराजिते, सव्वट्ठ-सिद्धे । दीहदंते सव्वसिद्धे । उक्कमेणं सेसा। अभओ विजए। सेसं जहा पढमे । अभयस्स णाणत्तं, रायगिहे नगरे, सेणिए राया, नंदा देवी माया, सेसं तहेव । एवं खल जंबू ! समणेणं जाव संपत्तेणं अणुत्तरोववाइय-दसाणं पढमस्स वग्गस्स अयमढे पण्णत्ते । (सूत्र १) एवं शेपाणामप्यष्टानां भणितव्यम् , नवरं सप्त धारिणिसुताः, वेहल्ल-बेहायसौ चेल्लणायाः आदिकानां पञ्चानां षोडश वर्षाणि श्रामण्य-पर्यायम्, त्रयाणां द्वादश वर्षाणि, द्वयोः पञ्च
SR No.010856
Book TitleAnuttaropapatikdasha Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year1936
Total Pages118
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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