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________________ अनुत्तरोपपातिकदशासूत्रम् । [प्रथमो वर्गः वस्त्र और पात्र लेकर उसी प्रकार पर्वत से उतर आए और श्री श्रमण भगवान् महावीर की सेवा में उपस्थित होकर उन्होंने सविनय निवेदन किया कि हे भगवन् ! ये जालि अनगार के धर्म-आचार आदि साधन के उपकरण हैं । इसके अनन्तर भगवान् गोतम ने श्री भगवान् से प्रश्न किया "हे भगवन् ! भद्र-प्रकृति और विनयी वह आप का शिष्य जालि अनगार मृत्यु के अनन्तर कहां गया ? कहां उत्पन्न हुआ ?" श्री श्रमण भगवान् ने इसके उत्तर में प्रतिपादन किया है गोतम ! मेरा अन्तेवासी जालि अनगार चन्द्र से और बारह कल्प देवलोकों से नव ग्रैवेयक विमानों का उल्लङ्घन कर विजय-विमान में देव-रूप से उत्पन्न हुआ है।" गोतम ने फिर प्रश्न किया "हे भगवन् ! उस जालि देव की वहां कितनी स्थिति है ?" श्री भगवान् ने उत्तर दिया "हे गोतम ! जालि देव की वहाँ बत्तीस सागरोपम स्थिति प्रतिपादन की गई है। गोतम ने फिर पूछा "हे भगवन् ! वह जालिदेव उस देवलोक से आयु, भव और स्थिति क्षय होने पर कहां जायगा ?" श्री भगवान् ने फिर उत्तर दिया "हे गोतम ! तदनन्तर वह महाविदेह क्षेत्र में सिद्ध-गति प्राप्त करेगा अर्थात् यावत् मानसिक और शारीरिक दुःखों से सर्वथा मुक्त होकर निर्वाण-पद को प्राप्त करेगा" श्री सुधर्मा स्वामी जम्बू स्वामी से कहते हैं कि हे जम्बू ! इस प्रकार मोक्ष को प्राप्त हुए श्री श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने अनुत्तरोपपातिक दशा के प्रथम वर्ग के प्रथम अध्ययन का यह अर्थ प्रतिपादन किया है । प्रथम वर्ग का प्रथम अध्ययन समाप्त हुआ। टीका-इस सूत्र में जालिकुमार के विपय में प्रतिपादन किया गया है। यह ध्यान में रखने के योग्य है कि इस अध्ययन मे कथित विपय 'ज्ञातासूत्र' के प्रथम अव्ययन के-जिसमें मेघकुमार के विपय मे कहा गया है-विपय के समान ही है । अर्थात् 'ज्ञातासूत्र' के प्रथम अध्ययन मे जिस प्रकार मेघकुमार के विपय में प्रतिपादन किया गया है, उसी प्रकार इस सूत्र के इस अध्ययन मे जालिकुमार के विषय में भी प्रतिपादन किया गया है । इम सूत्र में सब वर्णन संक्षेप से ही कहा गया है। इसका कारण यही है कि 'ज्ञानामूत्र' में इस गजगृह नगर, श्रेणिक राजा और धारिणी देवी का विस्तृत वर्णन दिया जा चुका है। उस सूत्र की संख्या छठी है और इसकी नवी । अतः
SR No.010856
Book TitleAnuttaropapatikdasha Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year1936
Total Pages118
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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