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________________ तृतीयो वर्गः ] भापाटीकासहितम् | [ ९७ तृतीय वर्ग का यह अर्थ प्रतिपादन किया है । छठा सूत्र समाप्त हुआ । अनुत्तरोपपातिकदशा समाप्त हुई । अनुत्तरोपपातिकदशा सूत्र नामक नवमाङ्ग समाप्त हुआ । टीका- - यह सूत्र उपसंहार - रूप है । इससे सब से पहले हमें यह शिक्षा मिलती है कि प्रत्येक शिष्य को पूर्ण रूप से गुरु भक्त होना चाहिए और गुरु-भक्ति करते हुए गुरु के सद्गुणों को अवश्य प्रकट करना चाहिए। जैसे इस सूत्र में श्री सुधर्मा स्वामी ने, उपसंहार करते हुए, श्री श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के सद्गुणों को जनता पर प्रकट किया है । वे अपने शिष्य जम्बू से कहते हैं कि हे जम्बू ! इस सूत्र को उन भगवान् ने प्रतिपादन किया है जो आदिकर हैं अर्थात (आदौप्राथम्येन श्रुतधर्माचारादि ग्रन्थात्मकं करोति तदर्थप्रणायकत्वे प्रणयतीत्येवंशीलस्तेनादिकरेण ) श्रुत-धर्म-सम्बन्धी शास्त्रों के प्रणेता है, तीर्थङ्कर हैं अर्थात् (तरन्ति येन संसार-सागरमिति तीर्थम् - प्रवचनम्, तदव्यतिरेकादिह सङ्घः - तीर्थम, तस्य करणशीलत्वात्तीर्थकरस्तेन) जिसके द्वारा लोग ससार रूपी सागर से पार हो जाते हैं उसको तीर्थ कहते हैं । तीर्थ सङ्घ- रूपी चार हैं । उनके करने वाले महापुरुष ने ही इस सूत्र के अर्थ का प्रकाश किया है । इसी क्रम से श्री सुधर्मा स्वामी श्री भगवान के 'नमोत्थु णं' मे प्रदर्शित मव गुणों का दिग्दर्शन यहां कराते हैं । जब कोई व्यक्ति सर्वज्ञ और सर्वदर्शी हो जाता है उस समय वह अनन्त और अनुपम गुणों का धारण करने वाला हो जाता है । उसके गुणों के अनुकरण करने वाला भी एक दिन उसी रूप में परिणत हो सकता है । अतः प्रत्येक व्यक्ति को उनका अनुकरण जहां तक हो अवश्य करना चाहिए । यही विशेषतः कारण है कि सुवर्मा स्वामी ने लोगों की हित-बुद्धि से उन गुणों का यहां दिग्दर्शन कराया है, जिससे लोग भगवान् के गुणों में अनुराग रखते हुए उनकी भक्ति में लीन हो जाय | भगवान हमे संसार-सागर में अभय प्रदान करने वाले हैं और शरण देने वाले हैं अर्थात (शरणम् - त्राणम, अज्ञानोपहतानां तदुरक्षास्थानम्, तच्च परमार्थतो निर्वाणम्, तद्ददाति इति शरणदः) अज्ञान-विमूढ व्यक्तियों की एकमात्र रक्षा के स्थान निर्वाण को देने वाले हैं, जिसको प्राप्त कर आत्मा सिद्ध-पद मे अपने प्रदेश में स्थित भी अन्य सिद्ध-प्रदेशों मे अलक्षित रूप से लीन हो जाता है । जिन भगवान् की भक्ति से
SR No.010856
Book TitleAnuttaropapatikdasha Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year1936
Total Pages118
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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