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________________ सृजन हुग्रा और धर्म जैसा मौलिक तत्त्व नाम्प्रदायिक विकार के कारण तिमिराच्छन्न हो गया । वस्तुत धर्म जैनी पवित्र और व्यवहार गुद्धि नोपान स्वरूप वस्तु के प्रति किमी की अरुचि हो ही नहीं सकती, पर जव मस्कार के नाम पर विकारो का पोपण होता है वहाँ श्रद्धा जम नहीं सकती। धर्म के प्रति अनास्था का कारण वैज्ञानिक प्रगति नहोकर उनके प्रति नव-मानस की आन्तरिक दृष्टि का न होना है। अनुभव तो और माधना की कमी के कारण ही वह विवाद की वस्तु बन गया है। यदि धर्म को एक विशुद्ध और व्यवहारवादी दृष्टि के स्प मे स्वीकार कर लिया जाय और इसके आगे किसी भी प्रकार की विगिप्ट सज्ञा ने इसे अभिगिप्त न किया जाय तो यह एक ऐनी आत्मोपन्यमूलक दृष्टि प्रदान करेगा कि प्रत्येक विचार को सहानुभूति और महिष्णुता मूलक दृष्टि से दूसरी को समझने का पर्याप्त अवसर प्राप्त होगा, जिससे न वैयक्तिक मनमुटावो की वृद्धि होगी न जन-जन मे वैर-विरोध और मंतुलन विकृत होने की ही स्थिति का निर्माण होगा। "आधुनिक विज्ञान और अहिंसा के लेखक श्रीगणेश मुनिजी ने वर्तमान जीवनं और जगत की विभीपिकायो पर दृष्टि केन्द्रित करते हुए, विशिष्ट अनुभवो द्वारा जो प्रकाश डाला है वह विज्ञान और प्राध्यात्मिक सस्कृति मे रुचिशील पाठको के लिए नया मोड़ देने में सहायता करेगा । विनान जैसे महत्त्वपूर्ण विषय के साथ धर्म, अहिंसा और दर्शन का जो समन्वय प्रस्तुत कृति मे दृष्टिगोचर होता है, वह उनकी अनुभूति की एक किरण है। मेरा विश्वास है कि प्राथमिक विज्ञान के अभ्यासियो के लिए यह कृति मार्गदर्शन का काम देगी तथा धार्मिक क्षेत्र मे विज्ञान के प्रति जो अरुचि फैली हुई है, उसे दूर करने मे भी मार्गदर्शन कराती हुई मुनिश्री के प्रयास को साफल्य • प्रदान करेगी। 77, भूपालपुरा, उदयपुर दिनांक 9.2 1962 -मुनि कान्तिसागर
SR No.010855
Book TitleAadhunik Vigyan Aur Ahimsa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshmuni, Kantisagar, Sarvoday Sat Nemichandra
PublisherAtmaram and Sons
Publication Year1962
Total Pages153
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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