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________________ वोस प्राणविक अस्त्र प्रयोगो की भयंकर प्रतिक्रिया एक पौराणिक किंवदन्ती है--एक वार देवगण अमृत की खोज मे निकल पडे । उह पता चला कि श्रमृत तो सागर के गभ म है, तो उन्होंने समुद्र को मथकर अमृत निकालने की ठान ली। मेरु की मचानी और शेपनाग की रस्सी बनाकर सागर माथन प्रारम्भ किया। समुद्र से प्राप्य रत्ना म सवप्रथम हलाहल निक्ला । इसे देखकर देवी-देवता विचार में पड गए कि इस विष का पान कौन कर ? जा इसका सेवन करेगा उस ससार से विदा लेनी होगी। फिर ग्रमत की उपयोगिता ही क्या रह जाएगी । इद्र में कहा गया "तुम बहुत ही शक्तिशाली हो और देवताओं के राजा हो, अत इस पो जायो ।" इद्र ने कहा- "क्या आप लोग मुझे मार डालना चाहते है ?" विष्णु के कहन पर उन्होने कहा 'हमारी तो हिम्मत नही होती, हम ता अमृत के लिए श्राय हैं।" महादेवजी स प्राथना करने पर उन्होंने कहा--- "अमृत तो मिलनेवाला ही है, किन्तु भगवानी तो जहर से है। जिसमें विपपान की शक्ति होती है, वही तो अमत पचा सकेगा ।" तब किसी ने कहा "तो करजी श्राप ही क्या नही इसे स्वीकार कर लेते " यह सुनन ही शिवजी ने प्रत्यन्त शानभाव से सम्मानपूर्वक विषपान करगले म सुरक्षित रख लिया । चिप के प्रभाव से क्ण्ठ म नीलापन आने के कारण ही उह भोल, गम्भु, नीलकण्ठ प्रादिनामा से अभिहित किया गया। * ग्राज वज्ञानिका वे भौतिक विधान रूपी समुद्र मथन से प्रणुवम, उदजन बम और प्रक्षेपणास्त्र यदि प्राणविक विप निकले हैं, परन्तु शिव के समान एसा कौन व्यक्ति या राष्ट्र आज तयार है जो इसे समुचित रूप स Ap 1 मान महित जो विष पियो शम्भु मय भगदारी, मान रहिन अमृत पियो, राहु कटायो शीरा ।
SR No.010855
Book TitleAadhunik Vigyan Aur Ahimsa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshmuni, Kantisagar, Sarvoday Sat Nemichandra
PublisherAtmaram and Sons
Publication Year1962
Total Pages153
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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