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________________ 68 आधुनिक विज्ञान और ग्रहिसा संपूर्ण विश्व में हलचल मच गई थी। स्पूतनिक नम्बर 1 और रूसी वाल चन्द्रमा या कृत्रिम चन्द्र के नाम से इसे अभिहित किया गया। इस के वैज्ञानिकी के बुद्धि कौशल का मीर श्रदम्य शोधवृत्ति का वास्तविक परिचय उपर्युक्त पक्ति से मिलता है । कथित उपग्रह पृथ्वी से लगभग 400 मील की ऊँचाई पर गया और पृथ्वी को श्राकर्षण शक्ति ( Force of Gravitation) से लड़ता हुआ अपनी कक्षा वना कर 18000 मील प्रति घटा की गति से पृथ्वी के चारों श्रोर भ्रमण करने लगा। इसकी शक्ति के सम्वन्ध में डॉ० पोलियाकोवस्की ने कहा था " ले जानेवाले राकेट के इंजन की क्षमता की तुलना विश्व के सर्वोच्च विद्युत ग्रह से की जा सकती है ।" राकेट के भीतर पृथ्वी पर चलनेवाले यन्न के समान कोई ऐसा यन्त्र नहीं है जो इसे गति प्रदान करता हो, केवल लोह वेष्ठित एक सोल है, जिसमे एक दहन कक्ष है। इसमे एक प्रकार का ईंधन जलता है जिसकी गैस बनती है। यह गॅस खोल के पिछले भाग मे किए गए छिद्र के जरिये बाहर निकलती हैं। इसी की तीव्रगति की प्रतिक्रिया से राकेट ऊपर उठता है । जैसे वायु पूरित गुव्वारे में सुई से छिद्र करने पर ज्योज्यों हवा निष्कासित होती हे त्यो त्यों गुव्वारा तीव्र वेग से गगन की ओर ऊँचा उठता चला जाता है | कहा जाता है कि ग्राज से लगभग दो हजार वर्ष पूर्व चीन वालो ने बहुत साधारण शक्ति वाले राकेट प्रयुक्त किये थे । अठारहवी शताब्दी मे अग्रेज सेना ने नवाव हैदरअली पर चढाई की। उस समय नवाव की सेना ने अग्रेजी सेना पर विस्फोटक प्रक्षेपणास्त्र छोड़े थे जो 8 इंच लम्बे और 2 इंच व्यास के फौलादी लोहे के सिलेण्डरो से निर्मित थे । अंग्रेजी सेना इसका प्रतिकार करने मे अक्षम थी । इसी भारतीय राकेट पद्धति से प्रेरणा पाकर अंग्रेज वैज्ञानिक कर्नल काग्रीव ने इग्लैण्ड की एक अनुसंधानशाला मे प्रयोग करके इन मसालो मे कुछ सशोधन किया और वह राकेट डेढ मील तक मार करने की क्षमता रखते थे । तदन्तर प्रथम महायुद्ध के समय अमेरिकन वैज्ञानिक डा० रावर्ट ने इसे और भी संशोधित रूप दिया । द्वितीय महायुद्ध के समय जर्मनी के 2200 वैज्ञानिकों ने इसकी शक्ति को अतिमानुपी बनाकर एक और अभिवृद्धि की । सर्व प्रथम 8 सितम्बर, 1944 में जर्मनी का प्रथम राकेट
SR No.010855
Book TitleAadhunik Vigyan Aur Ahimsa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshmuni, Kantisagar, Sarvoday Sat Nemichandra
PublisherAtmaram and Sons
Publication Year1962
Total Pages153
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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