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________________ 18 आधुनिक विज्ञान और अहिंसा क्षणिक हैं, ऐसा संस्कार उत्पन्न हो जाना मार्ग है। चतुर्थ आर्य सत्य निरोध है । सर्व प्रकार के दुःखो से मुक्ति मिलने का नाम ही निरोध है। इस प्रकार वौद्ध-दर्शन का मूलाधार दुःख ही है । संसारी जीव का स्कन्ध रूप दु.ख से पृथक् करना, यही बौद्ध-दर्शन के आविर्भाव का समुद्देश्य है। न्याय दर्शन न्याय दर्शन के संस्थापक अक्षपाद ऋपि थे। इस दर्शन के आराधक देव महेश्वर है जो सृष्टि के उत्पादक, रक्षक और संहारक है । वह विभु, नित्य तथा सर्वन है, जिनकी प्रेरणा से ही समस्त सृष्टि का संकलन, आकलन होता है। न्याय दर्शन ने सोलह तत्त्व माने है । प्रमाण, प्रमेय, सशय, प्रयोजन, दृष्टान्त, सिद्धान्त, अवयव, तर्क निर्णय, वाद, जल्प, वितण्डा, हेत्वाभास, छल, जाति, निग्रह और स्थान । जव इन सोलह तत्त्वो का परिज्ञान जीव को होता है, तव उसके दुख और कारणो की परम्परा समाप्त होती है। इस प्रकार दु.ख की निवृत्ति और मोक्ष-अपवर्ग की प्राप्ति हेतु ही प्रस्तुत दर्शन का प्रादुर्भाव होता है। यांख्य दर्शन साख्य दर्शन का प्रयोजन भी दुःख निवृत्ति है । इसके मुख्य दो भेद हैं। एक ईश्वरवादी और दूसरा निरीश्वरवादी। जो ईश्वरवादी है वे सृष्टि की उत्पत्ति ईश्वर से मानते है, और जो निरीश्वरवादी है, वे सृष्टि के निर्माण मे ईश्वर का हस्तक्षेप स्वीकार नहीं करते । सांख्य दर्शन के विचारानुसार दुःख की तीन राशियाँ है । आध्यात्मिक, आधिदैविक और आधिभौतिक । शारीरिक और मानसिक ये दुःख आध्यात्मिक कहलाते है तथा राक्षस आदि के आवेग से जोदुख होते है वे आधिदैविक दुख है और अन्य स्थावर तथा जगम आदि प्राणियों से जो दु ख उत्पन्न होते है वे आधिभौतिक दुख कहलाते है । इन दु खो का नाश वाह्य साधन व उपायो से नही होता है। किन्तु इनका सर्वनाश ज्ञान से ही होता है । ज्ञान क्या है ? उसका प्राप्ति के 1. क्षणिका. सर्वसस्कारा, इत्येव वासना मता । स मार्ग इह विधेयो, निरोधो, मोक्ष उच्यते ।।
SR No.010855
Book TitleAadhunik Vigyan Aur Ahimsa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshmuni, Kantisagar, Sarvoday Sat Nemichandra
PublisherAtmaram and Sons
Publication Year1962
Total Pages153
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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