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________________ 12 दान या स्वस्प और प्रयोजन रित है, प्रत वह बिना विमी सोच के उसे स्वीकार कर लेता है। यह वाणी महावीर की है, यह उपदेश बुद्ध का दिया हुआ है, यह शिक्षा मनु की दी हुई है, इस प्रकार जिरा व्यक्ति को श्रद्धा जिगके प्रति होती थी, उस पुस्प के वचन उमवे लिए शास्त्र रूप बन जात हैं। युग परियतनशील है। इस दृष्टि ने युग ने करवट बदनी, मानव मस्तिप्त यी उवरा भूमि से श्रद्धा के स्थान पर तर दे सकुर प्रस्फुटित होने लगे । मनुष्य के विचारों का मयन चला पौर तक ने अपना बन पड निया। यह उम पुरुष ने कहा है, इमलिए हम तरय माने, एमा क्या ' गत्य का मानदण्ड तक, युक्ति और प्रमाण होना पाहिा । स यही स दान का उदगम हाना है। प्राश्चय--प्रतिभासम्पन पाश्चात्य दानिय 'प्लेटा' प्रादि का यह मनव्य है रिदाबी उद्भूति प्राश्चय मे हुई है। जब मानव प्रारम्भ में रिसी अदभुत वस्तु या प्रत्यक्षीकरण करता है तो सहसा उसके हृदय में मा नप उत्सान होता है, और यह होना भी स्वाभाविप है। उमाश्चय को मान भरने के लिए उमपी जिलासा, चितन पौर पल्पना माग बढ़ती है। अमर धीरे धीरे यही जिनामा,चिनन पोर यल्पना दान के Fप मे परि वनित हो जाती है। सह-इमी प्रसार कुछ दागनिमीका विश्वास है विदशनकी उदभूति प्रावप से नहीं रिन्नुमन्दह रेहुई है। जर मानय याम्वय वे विषय मे अथवा इम भौतिष जगत् वी गता वे गम्मघ म सहममुत्पन्न होता है, उस समय उगमी विचारपारा जिम माग का अनुसरण करती है, वही माग दान पा धारण परता है। प्रसिद्ध विद्वान् वाड मादिका अभिमत भी इमी पगार या है। बुद्धिप्रेम-~बहागे दागनिर दायो उति या माधार बुद्धि प्रेम मेमान दगान अपनी बुदि म त रह वरमा है, यह उगे विपगित देगना पाहता है । बुद्धि प्रेम को पमिम्पमितही दान में मप में प्रकट होता है।इम पारामार दान गाभर याई प्रयाजन नहीं, येवर बुद्धि शाही गुप पिशाम । यहाँ जिग पुदि का प्रयोग हुपाई उम सामाय विचार. नाममनार पिचर पुरा भिगमन्ना उपशुपत होगा। मायास्मिाना-पानिरम भी नी दान मोरनि माय
SR No.010855
Book TitleAadhunik Vigyan Aur Ahimsa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshmuni, Kantisagar, Sarvoday Sat Nemichandra
PublisherAtmaram and Sons
Publication Year1962
Total Pages153
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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