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________________ आधुनिक विज्ञान और अहिसा का सक्रिय अग बनाने मे है । जो प्राणी या जाति सुन्दर, प्रेरक और उपादेय विचारकणो को स्वजीवन में प्रतिष्ठित नही करती, वह न तो उन्नति के शिखर पर पहुँच सकती है और न ससम्मान जीवित रह सकती है, और न भविष्य के लिए उत्क्रान्तिपूर्ण विकास परम्परा ही छोड़ जाती है । इतिहास इस बात का साक्षी रहा है कि मानव ने अपनी शक्ति के बल पर सदैव यह चेष्टा की है कि पौद्गलिक शक्ति एकान्तरूपेण उस पर अपना अधिकार कही स्थापित न कर ले। मानवेतर प्राणियो के समान भौतिक शक्ति के वशवर्ती कभी नही रहा । हाँ, भौतिक वैभव वृद्ध्यर्थ अधिक-से-अधिक श्रम कर सुख के साधन एकत्र करने मे आशातीत सफलता प्राप्त्यर्थ अवश्य ही प्रयत्नशील रहा व आशिक रूप मे कृतकार्य भी हुमा । आज मानव पौद्गलिक शक्ति की चरम सीमा पर पहुँचने के लिए आशान्वित है ।। मानव स्वीकृत सुख आधिभौतिक था।याधुनिक विज्ञान को भी सुखान्वेषण वृत्ति का ही परिणाम, कुछ अंशो मे मान लिया जाय तो अत्युक्ति न होगी । आज की अपेक्षा अतीत के मानव की सुख की परिभाषा भिन्न थी। उसका रहन-सहन, रीति-नीति और जीवन-यापन का ढग सापेक्षत सर्वथा था। ज्यो-ज्यो जिज्ञासु वुद्धि के प्रकाश मे मानव ने विकास के लिए चिन्तन भिन्न को विस्तृत किया त्यो त्यो उसकी लौकिक भावना गतिमान होती गई। अर्वाचीन और अतीत के मानवो की चिन्तन-धारा मे बहुत बड़ा अन्तर रहा है। समाजशास्त्र का यह अकाट्य नियम रहा है कि विकास-मात्र युगानुकूल साधन और परिस्थितियो पर निर्भर रहता है। यहाँ एक बात का स्पष्टीकरण आवश्यक जान पडता है कि पशुप्रो मे परिवर्तन की वृत्ति का अभाव होता है । वह जैसा अतीत मे था वैसा आज भी है। उदाहरणार्थ उसकी मॉद मे अन्य पशु के प्रविष्ट हो जाने पर उसे समझा-बुझाकर विदा करने का ढग पशु के समाज मे नही है, बल्कि इसके विपरीत घुर्राना, झपटना, नोचना, शृगो से प्रहार करना, लाते मारना और घुरकना आदि प्रवृत्तियो द्वारा रक्षा की जाती रही है । तात्पर्य यह कि पशु प्रकृति प्रदत्त सुख-सुविधायो तक ही अपने को सीमित रखता है जब कि मानव केवल प्रकृति के प्रासरे न रहकर सतत् चिन्तन और श्रम द्वारा जीवन-रक्षा के नित नये साधनो का आविष्कार कर रहा है ।
SR No.010855
Book TitleAadhunik Vigyan Aur Ahimsa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshmuni, Kantisagar, Sarvoday Sat Nemichandra
PublisherAtmaram and Sons
Publication Year1962
Total Pages153
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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