SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 125
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ विज्ञान पर ग्रहिसा का अकुश स्वभाग्य को समाप्त कर सकती है । श्राखिर यह जगत सभी महापुरषो और आविष्कारका आदि के परिजम म इतनी उच्च स्थिति में पहुँचा है ।" यव प्रश्न यह उपस्थित होता है कि क्या हम निरकुश विज्ञान के हाथ मे समस्त जगत को सांप दें? अगर विज्ञान के साथ ग्रहिंसात्मक नतिक्ता विकसित न हो सकी तो इसके परिणाम भयकर हो सकते हैं । विश्व की कोई भी वस्तु मूलत कभी किसी को हानि, लाभ नही पहुँ चाती । हानि-लाभ तो व्यक्ति के दृष्टिकोण को वस्तु है । विज्ञान भी स्वत मनुष्य को हानि नही पहुँचाता प्रत्युत इसके विपरीत निरन्तर शोधवृत्ति से विश्व के नूतन रहस्यो का उद्घाटन करता है । पर मूल प्रश्न है मानव रा इसके समुचित प्रयोग का उदाहरणाथ एक चाकू स चिकित्सिक शल्य किरे किसका मह रता है तो उसी चाकू के प्राण भी लिए जा सकते है । इसमे अच्छाई या बुराई शस्त्रगत न 1 हो जाती है । कला के क्षेत्र में कहा जाता है कि सोदय वस्तु कित्साद्वारा 1047 कति ७० होत भी वस्तुत व्यक्ति परक है। व्यक्ति के दृष्टिकोण से 1- जागत होता है । उसी प्रकार विज्ञान के क्षेत्र मे भी हम मफ्ते हैं कि निसन्देह विज्ञान की वास्तविक वनानिकता उस सिद्धान्त अपेक्षा उसके प्रयोक्ताओ पर अधिक निभर है । दवी और आसुरी विज्ञान की देन भले ही लगती हो, पर हैं य मानव की हो बत्तियां । 4 समाज रूपी रथ का समुचित संचालन करन के लिए नाम और की पक्षा है और साथ ही मानव-समाज का दृष्टिकोण आत्मनान● ययात् श्राध्यात्मिक भित्ति पर अनलम्वित होना चाहिए तभी विज्ञान का रूप ले सकता है । श्रप्रमाद भोर विवेक वनानिक प्रयोक्ताश्रा लिए अनिवार्य है । इनवे विना प्रगतिशील विज्ञान भी भौतिक जगत का ही श्रालोतिर पर वह प्रेरणाशील सजनात्मक तत्व प्रदान नही कर " | आत्मज्ञान की शक्ति से पूरित मानच ही विज्ञान का सफल प्रयोक्ता ता है। भगवान महावीर ने घपनी दोघकालिक साधना के बाद जो रत्न किया उसके एक आम सूचित किया गया है कि कोई भी कानी हो तो उसका सार यही है कि वह अपने श्रात्मनान के कारण विश्व विज्ञानका उपभोग करता हुआ किसी को हिंसा नहीं करता। किसी M 129
SR No.010855
Book TitleAadhunik Vigyan Aur Ahimsa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshmuni, Kantisagar, Sarvoday Sat Nemichandra
PublisherAtmaram and Sons
Publication Year1962
Total Pages153
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy