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________________ व्यक्ति नहीं, स्वयं एक संस्था होगी तो ज्ञान विकृत हो जायेगा, चरित्र दूषित हो जायेगा। इस दृष्टि-दीप से हम सभी बहुत बुरी तरह अमित हैं। भापा, प्रान्त, राष्ट्रीयता और साम्प्रदायिकता के दृष्टि-दोष के जो दृश्य देश में भाज जहां-तहां देखने को मिल रहे हैं, ये यहाँ के चारित्रिक ह्रास के ही परिचायक है । घृणा, सकोणं मनोवृत्ति प्रोर पारसरिक अविश्वास के भयावह अन्तराल मे भारतीय माज ऐसे डूब रहे हैं कि कार उठकर बाहर की हवा लेने की बात सोच ही नहीं पाते । इस भयावह स्थिति को समय रहते समझना है, मपने आपको सम्भालना है । यह कार्य चरित्र-बल से ही सम्भव है और चरित्र को सजाने के लिए शिक्षा में सुधार अपरिहार्य है। प्रश्न है-यह शिक्षा कैसी हो? सक्षेप में जीवन के निर्दिष्ट लक्ष्य तक यदि हमें पहेचना है, तो ऐसे जीवन के लिए निश्चित वही शिक्षा उपयोगी होगी, जिसे हम मयम की शिक्षा को सज्ञा दे सकते हैं । मंयमी जीवन में सादगी और सरलता का मनायास ही सम्मिश्रण होना है और जहां जीवन सादगी से पूर्ण होगा, उसमे सरलता होगी, वहाँ कर्तव्यनिष्ठा बढ़ेगी ही। तम्प-निष्ठा के जागत होते ही व्यक्ति-निर्माण का वह कार्य जो माज के युग की, हमारी शिक्षा की, उसके स्तर के सुधार की मांग है, सहज ही पूरा जायेगा। उन्नति की धुरी भ-म्यवस्था भी दोषपूर्ण है। पप-व्यवस्था सुधरे धिना चरित्रवान् बनने मे महिनाई होती है और परित्रवान् बने बिना समाजवादी समाज दने, यह भी सम्भव नहीं है। इसीलिए यह पावश्यक है कि देश के कर्णधार योजनामों के क्रियान्वयन में परित्र-विकास के सर्वोपरि महत्त्व को दृष्टि से प्रोमल न करें। ईमानदारी चरित्र का एक प्रधान पररा है । यदि परिष नहीं तो ईमानदारी महा से पायेगो, और जब ईमानदारी नहीं, तो इन दीर्घमूत्रीय योजनामों से, जो भाज प्रियान्वित हो रहीं हैं, मागे चलकर पर्ष-लाम भले ही हो, पर अभिशाप में परिवार, प्रगम और प्रसमानता का ऐसा घेरा समाज में पड़ेगा, जिसमे निस्सना फिर पासान बात न होगी। हम भार देशोन्नति की धुरी चरित्र ही है। बिना परिव-विकास के देश का विकास प्रमभव है। चरित्र निर्माणका सम्बन्ध हमारी शिक्षा और पर्ष
SR No.010854
Book TitleAacharya Shree Tulsi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherAtmaram and Sons
Publication Year1964
Total Pages163
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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