SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 117
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ चरैवेति चरैवेति को साकार प्रतिमा श्री आनन्द दिद्यालंकार सहसम्पावक, नवभारत टाइम्स, दिल्ली 'चरैवेति' का भादि और सम्भवतः अन्तिम प्रयोग ऐन रेय ब्राह्मण के शुन: शेप उपाख्यान में हुमा है। उसमे रुद्र के मुख से राजपुत्र रोहित को यह उपदेश दिलाया गया है कि पप सूप श्रमाण यो न तन्द्रपते परन् । चरवेति चरवेति इसका अर्थ है-'हे रोहत ! तू सूर्य के श्रम को देख । वह चलते हुए कभी पालस्य नहीं करता। इसलिए तू चलता ही रह, चलता ही रह ।' यहां चलता ही रहेका निगढार्य है कि 'तू जीवन में निरन्तर श्रम करता है। इन्द्र ने इस प्रकरण में सूर्य का बो उदाहरण प्रस्तुन किया है, उससे सुन्दर और सत्य अन्य कोई उदाहरण नही हो सकता। इस समस्त ब्रह्माण्ड में सूय ही सम्भवत: एक ऐसा भासमान एव विश्व-कल्याणकर पिण्ड है, जिसने सृष्टि के पारम्भ से अपनी जिस प्रादि-प्रनन्त यात्रा का प्रारम्भ किया है, वह प्राज भी निरन्तर जारी है। इस ब्रह्माण्ड मे गतिमान पिण्ड और भी हैं, परन्तु जो गति पृथ्वी पर जीवन की जनक तथा प्राणिमात्र की सड़क है, उसका स्रोत सूर्य ही है। वह सूर्य कभी नहीं थकता। अपने अन्तहीन पथ पर पनालस-भाव से वह निरन्तर गतिमान है। श्रम का एक अतुलनीय प्रतीक है वह ! 'चरैवेति' अपने सम्पूर्ण रूप में उसी मे साकार हुआ है। जीवन की श्रेष्ठ उपलब्धि __ सर्प के लिए को सत्य है, वह इस युग में इस पृथ्वी पर प्राचार्यश्री तुलसी के लिए भी साय है । जोधपुर-स्थित साइन नगर के एक सामान्य परिवार में जन्म-प्राप्त यह पुरुष शारीरिक दृष्टि से भले ही मूर्य की तरह विमाल एवं भातभान न हो, परन्तु उस जो असमन चौर प्रखर बुद्धि है, उसकी तमना सूम से सहज ही की जा सकती है। उसके मानसिक ज्योति-पिण्ड ने अपने
SR No.010854
Book TitleAacharya Shree Tulsi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherAtmaram and Sons
Publication Year1964
Total Pages163
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy