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________________ माचार्यश्री तुलसी और मोक्ष के बारे में था। जिस धर्म में मेरा पालन-पोषण हुमा पा, उसमें गृहस्य माथम को मूलतः पापमय नहीं समझा जाता, जबकि जैन धर्म के सिद्धान्तो के अनुसार ससार के सम्पूर्ण त्याग द्वारा ही मोक्ष प्राप्त किया जा सकता है। अत: यदि मैं अपने धर्म पर श्रद्धा रख कर चल तो क्या मेरे जसे प्राणी को मोक्ष मिल ही नहीं सकता? दूसरा प्रश्न था कि दुनिया किस तरह चल रही है ? उस समय द्वितीय महायुद्ध अपने पूरे वेग, रक्तपात और विनाश के साथ चल रहा था। मैंने पूछा कि जब दुनिया में सत्ता और अधिकार को लिप्सा का बोलबाला है शक्तिशाली वही है जो सूक्ष्म नैतिक विचारों को कोई परवाह नहीं करता और उनको कमजोरो और प्रज्ञानियो का भ्रम-मात्र समझते हैं. क्या अहिंसा की विजय हा सकती है ? उनके निकट नतिकता और धर्म-सापेक्ष सन्द है। विज्ञान में दक्ष और युद्ध करने में समर्थ लोगों के लिए जो उचित है, यह कमजोरों और भकु. पल लोगों के लिए उचित नहीं है। अपने कथन के प्रमाणस्वरूप के इतिहास की साक्षी प्रस्तुत करते हैं। __ मेरे साथ एक परिचित सज्जन थे, जो तेरापंथ सम्प्रदाय के अनुयायी थे। उन्होने कहा कि मेरा दूसरा प्रश्न प्राचार्यथी की समझ में नहीं पाया। इससे मेरे मन में शंका पैदा हो और मैंने अपने मित्र की मोर एव फिर प्राचार्यश्री की ओर देखा। प्राचार्यश्री जब मैं प्रश्न पूछ रहा था, तो चुप थे पोर मेरे प्रश्नों का विचार करते प्रतीत हुए। किन मैंने देखा कि उनके शान्त नेत्रों में प्रवास को रिण चमक उठी और उन्होंने कहा कि इन प्रश्नों का उत्तर देने के लिए शान्त वातावरण को प्रावश्यक्ता होगी, इमनिए मच्छा होगा कि भाप सायकाल सूर्यास्त के बार जब मायेंगे, मैं प्रतिक्रमण व प्रवचन समाप्त कर पगा और तव एकान्त में वार्तालाप मन्छो तरह हो सकेगा। मुझे पता था कि मुझं विशेष प्रकार दिया जा रहा है। क्योकि गर्यास्त के बाद भाचारधी से उनके निकट शिष्यों के प्रतिरिक्त रहत कम लोग मिस पाते हैं । मैंने यह मभाव सहर्ष स्वीकार कर लिया। यमनगरमों से विशेष चर्चा मेरे न घिसेपिसाए और छामान्य से, कारण रितीय महापद के
SR No.010854
Book TitleAacharya Shree Tulsi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherAtmaram and Sons
Publication Year1964
Total Pages163
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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