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________________ श्री शुभचन्द्राचार्यका समयविचार | इस परमशान्तिप्रद पवित्र ग्रन्थ के कर्त्ता पूज्यपाद श्री शुभचन्द्राचार्य के विषयमें यह लेख लिखनेके प्रारंभमें हमको खेद होता है कि उन्होंनें हम लोगों के साथ बड़ी भारी प्रतारणा की, जो अपना परिचय देने के लिये एक श्लोक भी नहीं लिखा । हमारे उपकारके लिये जिन्होंने अश्रान्तपरिश्रम करके इतना बड़ा ग्रन्थ रचना कठिन न समझा, उन्होंनें दो चार श्लोकोंके बनानेमें कंजूसी क्यों की? यह समझमें नहीं आता । माना कि हम लोगोंके समान उन्हें कीर्तिकी चाह न थी, और न मानकपाय उनके समीप आने पाती थी, परन्तु अपना परिचय न देनेसे भी तो उनकी कीर्ति कहीं छुपी न रही । आज प्रत्येक जैनीको उनका नाम भगवत्तुल्य आदर के साथ लेनेमें संकोच नहीं होता । फिर परिचय न देनेसे सिवाय हम लोगोंको दुःखित व विडम्बित करने के और क्या लाभ हुआ ? सुनामधेय महात्माओंका जीवनवृत्तान्त जाननेकी भला किसको इच्छा नहीं होती ? और फिर वर्तमान कालमें, जब कि, इतिहास के प्रेमकी मात्रा दिनोंदिन बढ़ रही है कौन ऐसा होगा, जो भगवान् शुभचन्द्र जैसे ग्रन्थकर्त्ताकी जीवनवार्ता जाननेको उत्कंठित न हो ? अर्थात् कोई नहीं । इसीलिये आचार्य भगवान्‌को उलहना देकर हम खेदके साथ विविध ग्रन्थोंके सहारे युक्ति और अनुमानोंको स्थिर करके अपने विचारोंका उपक्रम करते हैं । श्रीविश्वभूषण मट्टारकका बनाया हुआ एक भक्तामरचरित्रनामका संस्कृतग्रन्थ है । उसकी उत्थानिकार्मे शुभचन्द्र और भर्तृहरिकी एक कथा है, उसे हम पृथक् प्रकाशित करते हैं । उससे जाना जाता है कि भर्तृहरि, भोज, शुभचन्द्र और मुंज समकालीन पुरुष थे । इसके सिवाय भक्तामरस्तोत्रके बननेकी कैथोस जिसका कि इससे घनिष्ट सम्बन्ध है, यह भी प्रगट होता है कि मानतुंग, कालिदास, वररुचि और धनंजय भी शुभचन्द्र के समसामयिक हैं । इस लिये उपर्युक्त व्यक्तियोंमें किसी एकका भी समय ज्ञात हो जानेसे शुभचन्द्रका समय ज्ञात हो सकता है 1 मुंज । परमारवंशावतंस महाराज मुंजराजका समय शोधने में हमको कुछ भी कठिनाई नहीं हुई । क्योंकि धर्मपरीक्षा, श्रावकाचार, सुभाषितरत्नसंदोह आदि ग्रन्थोंके सुप्रसिद्ध रचयिता श्रीअमितगतिआचार्य उन्हींके समयमें हुए हैं, सुभाषितरत्नसंदोहकी प्रशस्तिम लिखा है: समारूढे पूतत्रिदशवसतिं विक्रमनृपे, सहस्रे वर्षाणां प्रभवति हि पञ्चाशदधिके । समाप्तं पञ्चम्यामवति धरणि मुञ्जनृपतौ, सिते पक्षे पौपे बुधहितमिदं शास्त्रमनघम् ॥ अर्थात् विक्रमराजाके स्वर्गगमनके १०५० वर्षके पश्चात् अर्थात् विक्रमसंवत् १०५० (ईखी सन् ९९४ ) में पौषशुक्ला पंचमीको मुंज राजाकी पृथ्वीपर विद्वानोंके लिये यह पवित्रग्रन्थ बनाया गया । श्रीअमितगतिसुरिने श्रीमुंजमहाराजकी राजधानी उज्जयिनी में ही सुभाषितरत्नसंदोह ग्रन्थ १ जैनप्रन्थरत्नाकरकार्यालय - बम्बई से प्रकाशित आदिनाथस्तोत्रकी भूमिका में यह कथा प्रकाशित हुई । पाठक उसे मँगाकर पढ़ सकते हैं। है 1 २ राजा भोजने राजधानी उज्जयिनीसे उठाकर धारा नगरीमें स्थापित की थी।
SR No.010853
Book TitleGyanarnava
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Baklival
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1913
Total Pages471
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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