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________________ ३६५ ज्ञानार्णवः। जम्बूद्वीपादयो द्वीपा लवणोदादयोऽर्णवाः । स्वयम्भूरमणान्तास्ते प्रत्येक द्वीपसागराः ॥ ८३ ॥ अर्थ-उस मध्यलोकमें जम्बूद्वीपादिक तो द्वीप हैं और लवणसमुद्रादिक समुद्र हैं सो अन्तके खयंभूरमणपर्यन्त भिन्न २ हैं। भावार्थ-सबके बीच एक लाख योजन चौड़ा लंबा गोल जम्बूद्वीप है और उसके चारों ओर दो लाख योजनके व्यासका खाईकी समान लवणसमुद्र हैं. इसीप्रकार समुद्रके चारों ओर द्वीप और द्वीपोंके चारों ओर समुद्र, इसप्रकार स्वयंभूरमण समुद्रपर्यन्त द्वीपसमुद्रोंकी स्थिति है ।। ८३ ॥ द्विगुणा द्विगुणा भोगाः प्रावयांन्योन्यमास्थिताः । सर्व ते शुभनामानो वलयाकारधारिणः ॥ ८४ ॥ __ अर्थ-तथा वे द्वीप और समुद्र दूने २ विस्तारवाले हैं तथा परस्पर एक दूसरेको लपेटे हुए हैं । गोलाकर कड़ेके आकार हैं और उनके नाम भी जम्बूद्वीप, धातकीद्वीप, पुष्करद्वीप, लवणसमुद्र, कालोदधि, आदि उत्तमोत्तम हैं ॥ ८४ ॥ मानुपोत्तरशैलेन्द्रमध्यस्थमतिसुन्दरम् । नरक्षेत्रं सरिच्छैलसुराचलविराजितम् ॥ ८॥ अर्थ-तथा मानुपोत्तर पर्वतके मध्यस्थ नदीपर्वत मेरुपर्वतसे अतिसुन्दर मनुप्यक्षेत्र हैं। भावार्थ-सबसे बीचमें एक लाखयोजन व्यासका जंबूद्वीप है. जम्बूद्वीपके चारों ओर दो लाख योजनका लवणसमुद्र है. लवणसमुद्रके चारों तरफ चार लाख योजन धातुकीखंडद्वीप है और धातुकीखंडद्वीपके चारों ओर आठ लाख योजनका कालोदधि समुन्द्र और कालोदधि समुद्रके चारों तरफ १६ लाख योजन चौड़ा पुष्करद्वीप है. पुष्करद्वीपके उत्तरार्द्धमें अर्थात् अगले आधे भागमें ८ लाख योजन चोड़ा मानुषोत्तर नामका दीवारके समान पर्वत पड़ा हुआ है, इसकारण इस द्वीपको पुष्करार्द्ध द्वीप कहते हैं. और इन अढ़ाई द्वीपोंमें ही मनुप्य रहते हैं. अगले द्वीपोंमें मनुष्य नहीं हैं और न उससे आगे मनुष्य जाही सकते हैं, इसी कारण उस पर्वतका नाम मानुषोत्तर पर्वत है ॥ ८५ ॥ तत्रार्यम्लेच्छखण्डानि भूरिभेदानि तेष्वमी। आर्या म्लेच्छा नराः सन्ति तत्क्षेत्रजनितैर्गुणैः ॥ ८६ ॥ अर्थ-उस मनुप्यक्षेत्रमें अर्थात् अढाई द्वीपोंमें अनेक आर्यखंड और म्लेच्छखंड हैं और आर्यक्षेत्रोंमें आर्यपुरुष और म्लेच्छक्षेत्रोंमें म्लेच्छ रहते हैं. उन क्षेत्रोंके अनुसार ही उनके गुण आचारादिक हैं । अर्थात् आर्योंके उत्तम आचार, उत्तम गुण हैं और म्लेच्छोंके निकृष्ट आचार और धर्मशून्यतादि निकृष्ट गुण हैं ॥ ८६ ॥ क्वचित्कुमानुपोपेतं कचिभ्यन्तरसंभृतम् । कृचिह्नोगधराकीण नरक्षेत्रं निरन्तरम् ॥ ८५॥
SR No.010853
Book TitleGyanarnava
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Baklival
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1913
Total Pages471
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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