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________________ ३६४ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् बुभुक्षा जायतेऽत्यर्थ नरके तत्र देहिनाम् । यां न शामयितुं शक्तः पुगलपचयोऽखिलः ॥ ७७॥ अर्थ-तथा उस नरकमें नारकी जीवोंको भूख ऐसी लगती है कि समस्त पुद्गलोंका समूह भी उसको शमन करनेमें असमर्थ है ।। ७७ ॥ तृष्णा भवति या तेषु वाडवाग्निरिवोल्वणा । । न सा शाम्यति निःशेषपीतैरप्यम्धुराशिभिः ॥ ७८ ॥ अर्थ-तथा नरकमें नारकी जीवोंके जो तृपा वड़वाग्निकी समान अति उत्कट (तीत्र) होती है समस्त समुद्रोंका जल पी लें तो भी नहीं मिटती ।। ७८ ॥ विन्दुमात्रं न तैर्वारि प्राप्यते पातुमातुरैः। तिलमात्रोऽपि नाहारो ग्रसितुं लभ्यते हि तैः ॥ ७९ ॥ अर्थ-यद्यपि नरकोंमें उपर्युक्त भूखप्यासकी तीव्रता है, परन्तु न तो किसी कालमें तिलमात्र किसीको भोजन मिलता है और न एक बिंदु पानी ही कहीं मिलता है. इस प्रकार आतुर होकर, निरंतर भूख प्यास सहते हैं ॥ ७९ ॥ तिलादप्यतिसूक्ष्माणि कृतखण्डानि निर्दयः । वपुर्मिलति वेगेन पुनस्तेषां विधेशात् ।। ८०॥ अर्थ-तथा उन नारकियों के शरीर निर्दय नारकियोंके द्वारा तिलतिलमात्र खण्ड किये जाते हैं परन्तु मृत्यु नहीं आती, तत्काल मिलकर शरीर बन जाता है. इनके ऐसा ही कर्मोदय है, जो मरण नहीं होता. सागरोंकी आयु पूर्ण होनेपर ही मरण होता है. अकालमृत्यु कभी नहीं होती ॥ ८० ॥ यातनारुशरीरायुलेश्यादुःखभयादिकम् । वर्द्धमानं विनिश्चयमधोऽधः श्वभ्रभूमिपु ।। ८१॥ अर्थ-उन नरककी भूमियोंमें पीडा, रोग, शरीर, आयु, लेझ्या, दुःख, भय इत्यादि नीचे नीचे बढ़ता हुआ है अर्थात् पहिले नरकसे (पृथिवीसे) दूसरे नरकमें अधिक है, दूसरेसे तीसरेमें और तीसरेसे चौथेमें और चौथेसे पांचवेंमें और पांचवेंसे छठेमें और छठेसे सातवेंमें इस प्रक्रमसे अधिक २ हैं. यह अधोलोकका वर्णन हुआ ।। ८१ ॥ अब मध्यलोकका वर्णन करते हैं, मध्यभागस्ततो मध्ये तत्रास्ते झल्लरीनिभः । ___ यत्र द्वीपसमुद्राणां व्यवस्था वलयाकृतिः ॥ ८२॥ अर्थ-उस अधोलोकका ऊपर झालरके समान (घंटा वजानेकी घड़ावलीके समान) गोलाकार मध्यलोकका मध्य भाग है. उसमें गोल २ वलयों (कड़ों) के समान असंख्यात द्वीप समुद्र हैं ॥ ८२ ॥
SR No.010853
Book TitleGyanarnava
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Baklival
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1913
Total Pages471
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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