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________________ १२८ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् पोषण किया है । ठीकही है, पापियोंको पापही इष्ट होता है । महापुरुष जिसकी निंदा. करते हैं, नीच उसकी प्रशंसा किया ही करते हैं ॥ ३९॥ सुतखजनदारादिविसबन्धुकृतेऽथवा । आत्मार्थे न वचोऽसत्यं वाच्यं प्राणात्ययेऽथवा ॥४०॥ .: अर्थ-पुत्र, खजन, स्त्री, धन, और मित्रोंके लिये अथवा अपने लिये प्राण जानेपर भी असत्य वचन नहीं बोलना चाहिये, यही उपदेश है ॥ ४०॥ . . . . : वंशस्थम् । परोपरोधादतिनिन्दितं वचो ब्रुवन्नरो गच्छति नारकी पुरी। अनिन्द्यवृत्तोऽपि गुणी नरेश्वरो वसुर्यथाऽगादिति लोकविश्रुतिः ॥४१॥ अर्थ-मनुष्य अन्यके अनुरोधसे (प्रार्थनासे ) अन्यके लिये अति निन्दनीय असत्य कहकर नरकपुरीको चला जाता है । जैसे-वसु राजा अनिन्ध आचरणवाला और गुणी था, परन्तु अपने सहाध्यायी गुरुपुत्र(पर्वत) के लिये झूठी साक्षी देनेसे नरककोगया। यह जगत्प्रसिद्ध वार्ता है. (इसकी कथा पुराणों में प्रसिद्ध है ) इस कारण परके लिये भी झूठ बोलना नरकको ले जाता है ॥ ११ ॥ अब इस सत्यमहाव्रतके प्रकरणको पूर्ण करते हुए कहते हैं शार्दूलविक्रीडितम् । चञ्चन्मस्तकमौलिरत्नविकटज्योतिश्छटाडम्बरै देवाः पल्लवयन्ति यच्चरणयोः पीठे लुठन्तोऽप्यमी। - कुर्वन्ति ग्रहलोकपालखचरा यत्प्रातिहार्य नृणां ... शाम्यन्ति ज्वलनादयश्च नियतं तत्सत्यवाचः फलम् ॥४२॥ अर्थ-जगत्प्रसिद्ध देवभी अपने देदीप्यमान (चमकते हुए) मस्तकपरके मुकुटोंके रत्नोंकी उत्कट ज्योतिकी छटाके आडंबरोंसे जिन मनुष्योंके चरणयुगलोंके नीचेके सिहांसनके निकट लोटते हुए चरणोंकी शोभाको प्रफुल्लित करते हैं (बढ़ाते हैं) तथा सूर्यादिक ग्रह, लोकपाल और विद्याधर जिनके द्वारपर द्वारपाल होकर रहते हैं और अमि, जलादिक नियमसे उपशमरूप हो जाते हैं उनके सत्यवचन बोलनेकाही यह फल है। भावार्थ-जिन मनुष्योंकी सेवा प्रसिद्ध देवादिकभी करते हैं ऐसे महान् पुरुष तीर्थंकर तथा चक्रवर्त्यादिक होते हैं। उनके अग्निमें प्रवेश करनेपर और जलमें गिरनेपर भी वे (अग्यादि) उनकी सहायता करते हैं। यह सब सत्यवचनकाही फल है । इस प्रकार सत्यमहाव्रतका वर्णन किया ॥ ४२ ॥
SR No.010853
Book TitleGyanarnava
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Baklival
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1913
Total Pages471
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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