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________________ — ज्ञानार्णवः । । १२७ असत्यसे उत्पन्न हुए पापको रखकर तौला तो दोनो समान हुए । भावार्थ-असत्य अके-. लाही समस्त पापोंके बराबर है ॥ ३३ ॥ मूकता मतिवैकल्यं मूर्खता बोधविच्युतिः। . . बाधिर्य मुखरोगित्वमसत्यादेव देहिनाम् ॥ ३४ ॥ : अर्थ-गूंगापन, वुद्धिकी विकलता, मूर्खता, अज्ञानता, बधिरता तथा मुखमें रोग) होना इत्यादि जो सवही जीवोंके होते हैं वे असत्यवचन बोलनेके पापहीसे होते हैं ॥३४॥ई श्वपाकोलूकमार्जारवृकगोमायुमण्डलाः। , खीक्रियन्ते कचिल्लोकैनै सत्यच्युतचेतसः ॥ ३५ ॥ अर्थ-चण्डाल, उल्लू (घूधू), विलाव, भेड़िया और कुत्ता आदि यद्यपि निंदित हैं! तथापि इन्हें अनेक लोग अंगीकार करते हैं; परन्तु असत्यवादियोंको कोई अंगीकार नहीं करता अतएव असत्यवादी इन सबसे भी अधिक निंदनीय है ॥ ३५॥ प्रसन्नोन्नतवृत्तानां गुणानां चन्द्ररोचिषां।। सङ्घातं घातयत्येव सकृदप्युदितं मृषा ॥ ३६॥ अर्थ-एकवार भी बोला हुआ असत्यवचन चन्द्रमाकी किरणोंके समान प्रसन्न (निर्मल ) तथा उन्नत गुणोंके समूहको नष्ट करता है । भावार्थ-असत्य वचन ऐसा मलिन है कि चंद्रवत् निर्मल गुणोंको भी मलिन कर देता है ॥ ३६ ॥ न हि खमेऽपि संसर्गमसत्यमलिनैः सह । ___ कश्चित्करोति पुण्यात्मा दुरितोल्मुकशङ्कया ॥ ३७॥ अर्थ-जो असत्यसे मलिन पुरुष है उनके साथ पापरूप कालिमाके भयसे कोई पुण्यात्मा पुरुष खममें भी साक्षात् ( मुलाकात) नहीं करते । भावार्थ-झूठेकी संगतसे सच्चको भी कालिमा लगती है ॥.३७ ॥ जगदन्ये सतां सेव्ये भव्यव्यसनशुद्धिदे। शुभे कर्मणि योग्यः स्यान्नासत्यमलिनो जनः ॥ ३८॥ . अर्थ-जगतके वंदनीय, सत्पुरुषोंके पूजनीय, संसारके कष्ट आपदाओंसे शुद्धिके देने-. वाले शुभ कार्योंमें असत्यसे मैले पुरुष योग्य नहीं गिने जाते । भावार्थ-शुभकार्योंमें. झूठेका अधिकार नहीं है ॥ ३८ ॥ . : . महामतिभिर्निष्ठयूतं देवदेवैनिषेधितम् ।. ... . - ..., - असत्यं पोषितं पापैर्दुःशीलाधमनास्तिकैः ॥ ३९ ॥ . . . . . . - अर्थ-बड़े २ बुद्धिमानोंने तो असत्य वचनको त्याग दिया है और देवाधिदेव सर्वज्ञ बीतरागने इसका निषेध किया है किन्तु खोटे खभाववाले नीच नास्तिक पापियोंने इसका
SR No.010853
Book TitleGyanarnava
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Baklival
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1913
Total Pages471
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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