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________________ श्रारकनां बारव्रतनी सद्याय. (६७) सुगारणामुज वडपण थये तुह्म रसीया होशों, श्यो रस माणशो त्यांय रंगीला ॥ एउखाणो मंसशे लोकमो, उंट बलद तणो न्याय।। सुणा॥ हमणां सरखी जोडी विडं तणी, नवयौवन रस चूरि सलूणा ॥ अविचल प्रीति करो प्रीतम तुझे, होश हैया तणीपूर सनेहा ॥सुमारशाप्रसन्न थर ने मुजशुं विलसतां, होशे सुत सुविवेक सलूणो॥वडपणे सुखदायी तुमने होशे, धरशे जनकरुं नेक विपूणो ॥सुणाशा सुप्रतिष्ठ प्रीतमनें जे जांख बु, तेह अघटतुं रे सुकुल वहूनें।।शोक्यवेध होये अतिहिं आकरा, वांबा सुखनी रे होये सहूने।।सुणारधासुमति साहेली माहरी अति नली,ते पण प्रीतम जोग तुमारे सहज सलूणा सादिव सेवता, अविचल सुखसंयोग वधारे ॥ सु०॥१५एम घरवटझुप्रीतम प्रीबवी, अतिहि अनोपम प्रेम बगाड्यो।सुकृत सुकामण करिने वश कियो,जगजसवादशं तेम जगाड्यो सुणा१६॥तप जप किरिया समकित सुखडी, विलसे कामिनी कंत सदाये धीरविमल कवि सेवक नय कहे, उत्तम संगति सुजस नलाये॥ सुणा॥ ॥ अथ श्रीमान विजयजीकृत श्रावकना वार व्रतनी सद्याय प्रारंजः। । ॥ ढाल पहेली॥ चोपा ॥ श्री जिनवीर वदे शुज वाण, श्रावक साधु धर्म अहिनाण ॥ देशविरति श्रावकनो धर्म, श्रादरों जविजन समजी मर्म ॥१॥ समकित मूल अणुव्रत पंच, त्रण गुण व्रतनो डे परपंच ।। चन शिक्षा व्रत ए व्रत बार, प्रथम कई समकित विस्तार ॥२॥ दोष अढार रहित अरिहंत, देव खरो गुरु साधु महंत ॥ पंच महाव्रत धारी जेह, धर्म जिनेश्वर जापित तेह ।। ३॥ पंचषो प्रथम मिथ्यात्व उमेद, लौ किकने लोकोत्तर नेद ॥ देव अने गुरुगत ए दोय, एकेके जोडे चड होय ॥४॥ए चउजेय होय अव्यथी, विवरीने मो शुलमति ॥ हरि हर ब्रह्मादिक जे देव, मुक्तिदायक नणि न करूं सेव ॥५॥ परतीर्थ पाखंमी जेह, गुरुबु वंडूं नहिं तेह ॥ पानबुझें पोषु नहिं कदा, अनुकंपादिकें. देवू सदा॥६॥ पंडूं नहिं जिननव फल तिब, जिनप्रतिमा परतिनि हछ । पासबादिक जे अगियड, जावे न नमुं न करूं सब ॥७॥ क्षेत्र में की थाहिं ने परदेश, न करूं मिथ्यामतनो लेश ॥ जावजीव थिरता का खथी, बातमशक्ति लगें नावथी । ॥ नृपगण बल सुर अनिउंगण, गुरुनिग्गह वित्ती कंतारेण ॥ दिमी विणू न करूं. मिड, चार आगार - .
SR No.010852
Book TitleSazzayamala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShravak Bhimsinh Manek
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year1988
Total Pages425
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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