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________________ (य) I 1 अर्थ :- ( फलिह के० ) स्फटिक प्रसिद्ध बे, ('मणि के० ) सपि ते चंद्रकांतादिक अथवा जे समुद्रमां उत्पन्न याय वे ते, तथा ( रयण के० ) रत्न ते वज्र कर्केतनादिक अथवा जे खाणमां उत्पन्न याय बे ते, विदुम के० ) परवालां अथवा विद्रुम, (हिंगुल के० ) हिंगलो, (हरियाल के० ) हरुताल, (मसिल के० ) मसिल, (रसिंदा के० ) पारो अथवा रसेंद्र, ( कणगाइ धाउ के० ) कनकादि धातु सात बे:- सोनुं, रूपुं, त्रां, कथीर, जस्त, सीसुं तथा लोढुं; ए अग्निसंयोना नावे पृथ्वी काय बे ने अग्निसंयोगे तेजकाय वे, (सेढी के० ) खमी माटी अथवा चाक कहेवाय बे ते, (वन्नि के० ) हरमजी अथवा लाल रंगनी माटी थाय दे ते, ( अरोहय के० ) पाषाणना कटकानी साथे मलेली धोली माटी थाय बे ते तथा ( पलेवा के० ) ए एक जातिनो पाषाण बे ॥ ३ ॥ ( अयं के० ) पांच वर्णनो अबरख, ते सोनी लोकोने सोनुं तपाववाना उपयोगमां आवे थवा वैद्य लोको एनी जस्म विगेरे करीने औषधियां वापराने कामे लगाडे बे, ( तूरी के० ) एक जातिनी माटी बे, ते कापमने पाश देवाना कामसां - f
SR No.010850
Book TitleJiva Vichar Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShravak Bhimsinh Manek
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year
Total Pages97
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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