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________________ ७१६ प्रेमी-प्रभिनदन-प्रय इस वर्ग करने के नियम मे उपपत्ति (वासना) अन्तनिहित है, क्योकि प्र= (क+ग)=(क+ग) (क+ग)=क (क+ग)+ग(क+ग)=क+क ग+क ग+ग'क'+रक ग+ग। उपर्युक्त राशि में अन्त्य अक्षर (क) का वर्ग करके वर्गिन अक्षर (क) को दूना कर आगे वाले अक्षर (ग) से गुणा किया गया है तथा आदि अक्षर (ग) का वर्ग करके सव को जोड दिया है । इस प्रकार उपर्युक्त सूत्र में वीजगणित गत वामना भो सन्निवद्ध है। महावीराचार्य के उत्तरवर्ती गणितज्ञो पर इम सूत्र का अत्यन्त प्रभाव पड़ा है। इसी प्रकार "अन्त्यौजादपहृतकृतिमूलेन" इत्यादि वर्गमूल निकालने वाला सूत्र भी जैनाचार्य की निजी विशेषता है। यद्यपि आजकल गुणा, भाग के भय से गणितज्ञ लोग इस सूत्र को काम में नहीं लाते है, तथापि वीजगणित में इसके बिना काम नहीं चल सकता। धन और घनमूल निकालने वाले सूत्रो में वासना सम्बन्धी निम्न विशेषता पाई जाती है अ अ अ अ (अ+व) (अ-4)+व' (अ-व)+ब'अ'। इस नियम मे वीजगणित में घनमूल निकालने में बहुत सरलता रहती है। आज वैज्ञानिक युग में जिम फारमूला (fotmuln) को बहुत परिश्रम के वाद गणितज्ञो ने पाया है, उसीको जैन गणितज्ञ सैकडो वर्ष पहले से जानते थे । वर्तमान में जिन वर्ग और घन सम्बन्धी बातो की गूढ समस्याओ को केवल बीजगणित द्वारा सुलझाया जाता है उन्ही को जैनाचार्यों ने अकगणित द्वारा सरलतापूर्वक हल किया है। इनके अतिरिक्त जैन अकगणित मे साधारण और दशमलव भिन्न के परिकाष्टक, साधारण और मिश्र व्यवहार गणित, महत्तम और लघुत्तम समापवर्तक, साधारण और चक्रवृद्धि ब्याज, समानुपात, ऐकिक नियम, पैराशिक, पचराशिक, सप्तराशिक, समय और दूरी सम्बन्धी महत्त्वपूर्ण प्रश्न भी दिये गये है। जैन अकगणित मे गच्छ, चय, प्राद्य और सर्वधन सख्या आनयन सम्बन्धी सूत्रो की वाननागत सूक्ष्मता गणितज्ञो के लिए अत्यन्त मनोरजक और आनन्दप्रद है । तिलोयपण्णति मे सकलित धन लाने वाले सूत्र'- निम्न प्रकार वनाये है (१) पद के वर्ग को चय से गुणा करके उसमें दुगुने पद से गुणित मुख को जोड देने पर जो राशि उत्पन्न हो उसमें से चय से गुणित पद प्रमाण को घटा कर शेष को प्राधा कर देने पर प्राप्त हुई राशि के प्रमाण सकलित धन होता है। (२) पद का वर्ग कर उसमे से पद के प्रमाण को कम करके अवशिष्ट राशि को चय के प्रमाण से गुणा करना चाहिए। पश्चात् उसमें पद से गुणित आद्य को मिलाकर और फिर उसका प्राधा कर प्राप्तराशि मे मुम्ब के अर्द्धभाग से गुणित पद के मिला देने पर सकलित धन का प्रमाण निकलता है। गणित-पद ५, चय ४ और मुख ८ है। प्रथम नियमानुसार सकलित धन=(५)=२५, २५४४१००, ५४२=१०, १०x=८०, (१००+८०)=१८०, ५४४=२०, (१८०-२०)=१६०, १६०-२=८० द्वितीय नियमानुसार सकलित धन-(५)=२५, २५-५=२०, २०४४-८०, ५४८=४०, (८०+४०)=१२०-२=६०, ८-२=४, ४४५=२०, (२०+६०)=८०। उपर्युक्त दोनो ही नियम सरल और महत्त्वपूर्ण है । आर्यभट, ब्रह्मगुप्त और भास्कर जैसे गणितज्ञ भी श्रेढी-व्यवहार के चक्र मे पडकर इन मरल नियमो को नहीं पा सके है। वस्तुत गच्छ, चय, आद्य और सर्वधन सम्बन्धी प्रक्रिया जैनाचार्यों की अत्यन्त मौलिक है । अकगणित के नियमो मे अर्द्धच्छेद सम्बन्धी सिद्धान्त (formula) महत्वपूर्ण और मौलिक है। प्राचीन 'पदवग्ग चयपहद दुगुणिगच्छेण गुणिदमुहजुत्तम् । वढिहदपदविहीण दलिद जाणिज्ज सकलिदम् ॥ --तिलोयपण्णत्ति, पृ० ६२ २"पदवग्ग पदरहिद इत्यादि । -तिलोयपण्णत्ति, पृ० ६३
SR No.010849
Book TitlePremi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremi Abhinandan Granth Samiti
PublisherPremi Abhinandan Granth Samiti
Publication Year
Total Pages808
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size34 MB
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