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________________ ७१२ प्रेमी-प्रभिनदन-प्रथ रोगोत्पादक योग ऐसा कहा जाता है कि ऐमा विचार था कि इस महायुद्ध में रोग फैलाने वाले अनेक कृमियो का प्रयोग किया जायगा। नागरिको के जलाशयो मे ये कृमि प्रविष्ट होकर नगरवामियो को पीडा पहुंचायेगे। आश्चर्य की बात है कि कौटिल्य के इम ग्रन्थ मे रोगोत्पादक योगो का भी वर्णन है १.कृकलासगृह गोलिका योग कुष्ठकर । । २ दूषीविष मदनकोद्रव चूर्णमुपजिविका योग मातृवाहकाञ्जलिकारप्रचलाक भेकाक्षि पीलुक योगो विषूचिकाफर । ३ पञ्चकुष्ठक कौण्डिन्यकराजवृक्षमधुपुष्प मधुयोगो ज्वरकर । ((२११४१२०-३०) इसी प्रकार उन्मादकर, मूकवधिरकर, प्रमेहकर आदि अनेक योगो का वर्णन है। यह कहना तो कठिन है कि अर्थशास्त्र मे दिये गये योग विश्वसनीय है या नहीं। जब तक इन पर फिर में प्रयोग न कर लिये जायें, तब तक कुछ निश्चय रूप से नहीं कहा जा सकता। पर इतना तो स्पष्ट है कि ग्रन्यकार का लक्ष्य कितना सर्वतोन्मुखी है। रसायनशास्त्र का उपयोग जीवन के कितने विशद क्षेत्रों में किया जा सकता है यह भी स्पष्ट है । साथ ही यह भी असन्दिग्व है कि मनुष्य की प्रवृत्तियाँ आज भी वैसी ही है जैसी कौटिल्य के समय में थी। प्रयाग] - - - -
SR No.010849
Book TitlePremi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremi Abhinandan Granth Samiti
PublisherPremi Abhinandan Granth Samiti
Publication Year
Total Pages808
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size34 MB
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