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________________ कोटिल्य-कालीन रसायन ७११ चटकता है। उन नमय भूमि इतनी उर्वरा रही हो कि उसमें खाद देने का प्रश्न ही न उठता हो । बीजो कुन होने पर गीन मछली की खाद और स्नुही के दूध से सिंचित करने का विधान अवश्य दिया है । प्रन्दारचा शुष्क याहू मत्स्याश्च स्तुहि क्षीरेण वापयेत् ॥ २।२४।३४ ॥ कौटिल्य का कथन है कि धान के बीजो को रात मे श्रोम मे और दिन में वूप में सात दिन तक रखना चाहिए । उसी प्रकार कोणीधान्य (उड़द, मूग आदि) भी भोग और धूप में रक्वे जायें। ईख आदि काण्ड वीजो को मधु, घृत, सूकरवता बीरगोवर में लपेट कर रखते । कन्दी को काट-काट कर मधु और घृत में रक्खे, अस्थिवीजो को (गुठनी बानों को) गाजर में लोट कर और नागी वृक्षो के बीजो को (आम कटहलादि ) गोवर या गो-अस्थि से थाने के गड्ढे में नेके | ( २२२४१३३ || ) युद्ध मे गैसो का प्रयोग जाता है कि २२ अप्रैल नन् १६१५ को गत युरोपीय महानगर में जर्मन चामियो ने पहली बार गंग का प्रयोग मनुनेना को कष्ट पहुँचाने के लिए किया था । १६ दिनम्बर को उसी वर्ष जर्मनो ने फॉर्मजीन नाम दूसरी गैस का प्रयोग किया। इसी वर्ष प्रभु जैन (Lachrymators) जाइलील ब्रोमाइड का भी उपयोग किया गया । जर्मनी ने मानी गेना को घदृष्ट रखने के लिए धुम्र के बादल ( Camouflage gas) भी छोडे । गैर नामकी श्री त्वचाघातक गेमो के प्रयोग भी १६१६ में हुए । डाइफीनाइल क्नोर न नामक पदार्थ ने की इतनी भाती है कि सेना के निपाही छीको के मारे हैरान हो जाते है (Sneezing gas ) । गैनयुद्ध इम युग का एक भीषण श्राविष्कार समझा जाता है । कोटि के गाम्य में मनुनेना को पीडा पहुँचाने के अनेक योग दिये गये है । १४वें अधिकरण का पहला अध्याय इस दृष्टि से महत्त्व का है। उन विपन में रुचि रखने वाले व्यक्ति को यह समस्त श्रध्याय पढना चाहिए । हैक, कोण्डिन्यक, कृरुण, यतपदी ( कनखजूरा ) श्रादि का चूर्ण भिलावा और वावची के रस में मिलाकर दिना इनका बुदे तो गीघ्र मृत्यु होती है । सद्य प्राणहरमेतेषा वा धूम ॥ १४ ॥ ११५ ॥ शतकर्दमोच्चिदिङ्ग करवीर कटुतुम्बीमत्स्यवूमो मदनकोद्रवपलालेन हस्तिकर्ण पलाशवलालेन वा प्रवातानुवाते प्रणीतो यावच्चरति तावन्मारयति ॥ १४॥१॥ १० ॥ ग्रीन् शतावरी, वपूर, उच्चिदिंग, कनेर, कटु तुम्बी, और मत्म्य का धुआँ, धतूरा, कोदो, पलाल आदि के नाम हवा के रूज पर उठाया जावे तो वह जहाँ तक जावेगा वही तक लोगो को मार देगा । इसी प्रकार पूतिकोटमत्स्य, कटुनुम्ब, इन्द्रगोपयादि के चूर्ण बकरे के सीग या खुर के साथ जलाये जायें तो उनी उम्र श्रन्धा करने वाला होता है - "श्रन्धी करो धूमः” १४।१।११। इसी प्रकार अन्य ग्रन्वीकर धूम भी ई । ( १२, १३ ) | "नेत्रघ्न" नूम का सुन्दर उल्लेख निम्न सूत्र में है— कालीकुष्ठनड शतावरी मूल सर्पप्रचलाककृकण पचचूर्ण वा धूम पूर्व कल्पे नार्द्रशुष्क पलालेन वा प्रणीत सग्रामावतरणावस्कन्दन सफुलेषु कृततेजनोदकाक्षि प्रतीकारं प्रणीत सर्वप्राणिना नेत्रघ्न || १४।१।१५ ।। हम योग द्वारा बनाये गये धुएँ में विशेषता यह है कि यह मग्राम के समय उतरने, श्रोर वलात्कार प्राक्रमण की भीड के समय में प्रयोग किया जाता है, और सभी के नेत्रो को नष्ट कर देता है । फलत इस धुएँ के प्रयोग करने वाले के नेन भी तो नष्ट हो जायँगे जो वाछनीय नहीं है । इसलिए प्रणीता के लिए यह श्रावश्यक है कि वह तेजनोदक (१४१४११ ) मे अपने नेत्र की रक्षा करें। यह प्रतीकार रस मानो श्राजकल के गैसमाम्को ( Gas masks) का काम करना है । कुछ विपो के प्रतीकार ग्मो का उत्लेग डमी ग्रधिकरण के चौथे अध्याय में दिया गया है ।
SR No.010849
Book TitlePremi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremi Abhinandan Granth Samiti
PublisherPremi Abhinandan Granth Samiti
Publication Year
Total Pages808
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size34 MB
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