SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 76
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ इतिहासकार 'प्रेमीनी स्पष्ट है कि प्रेमी जी की प्रवृत्ति इस क्षेत्र में सर्वतोमुखी है। इतना होने पर भी प्रेमीजी शुद्ध जिज्ञासु रहे है। उन्हें किसी भी मान्यता में पक्षपात नहीं है। किसी भी मावन का उपयोग करते समय उनकी दृष्टि वस्तु-स्थिति पर ही रहती है, अपने अभीष्ट परिणाम पर नहीं। उनके सभी निष्कर्ष तटस्थ रहते है। दृष्टि उदार है, इसीलिए जाति, धर्म, देग, आदि का विचार उनके अनुशीलन को किमी प्रकार भी प्रभावित नहीं करता। नवीन सामग्री के प्रकाश में वे अपने प्राचीन मन्तव्यो को सहज ही परिवर्तित कर देते है। यही कारण है कि 'जैन-साहित्य तया इतिहास, में हम उनकी अधिकाम पूर्व प्रकाशित रचनाओं को सर्वथा नूतन तथा परिष्कृत रूप में पाते है। उनकी सरल, सुवोध और सरस शैली ने इतिहास जैसे शुष्क विषय को भी रोचक बना दिया है। प्रेमीजी की इन कृतियो से जैन-सस्कृति पर तो प्रकाग पडा ही है, साथ ही हिन्दी-साहित्य भी उनसे समृद्ध हुआ है। पारा] "हिन्दी-ग्रंथ-रत्नाकर-कार्यालय द्वारा प्रकाशित १९४२
SR No.010849
Book TitlePremi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremi Abhinandan Granth Samiti
PublisherPremi Abhinandan Granth Samiti
Publication Year
Total Pages808
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size34 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy