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________________ ५४ प्रेमी-अभिनदन-ग्रंथ ___स्ट तास्कृतिक इतिहास की ओर दृष्टिपात करने पर ज्ञात होता है कि प्रेमीजी ने सस्कृति के इनेगिने पगो का ही पोपण नहीं क्यिा है, बल्कि तीर्थक्षेत्र, वश, गोत्र आदि के नामो का विकास तथा व्युत्पत्ति, प्राचारसाल के निपनो का भाग्य विविध संस्कारो का विचार, दानिक मान्यताओ का विश्लेषण आदि सभी विषयो का ऐतिहानिक दृष्टि से विवेचन क्यिा है। "हमारे तीर्थक्षेत्र", "दक्षिण के तीर्थक्षेत्र तथा "तीर्थों के झगडो पर ऐतिहासिक दृष्टि से विचार " इन निवन्यो के द्वारा पौराणिक वर्णन, निर्वाणकाण्ड, शिलालेख, प्रतिष्णप्रशस्ति, तीर्थमाला गदि उपलब्ध नामत्री के आधार पर प्रेमीजी ने तीयों की तीर्थता का कारण, उनके भेद, मूल स्थान तथा प्राचीनता का विशद विवेचन किया है। इतना ही नहीं, ऐतिहासिक विकान की धारा का निरूपण करके यह भी सिद्ध कर दिया है कि उनके लिए झगडना सस्कृति-विरोधी ही नहीं है, सर्वया निस्सार भी है। ___ सिंघई, सिाई, सघवी, सी, साधु, साहु', पतिपली के समान नाम' आदि टिप्पणियां जितनी रोचक है उससे अधिक पव-प्रदर्शक भी हैं। उनसे गोत्र आदि के शुद्ध जैनस्वल्प को समझने की प्रेरणा मिलती है। परिरह परिमाण के दास-दानियो का प्रखर परीक्षण, जैनधर्म को अनीश्वरवादिता का पोषण तथा यज्ञोपवीत और जैनधर्म का सम्बन्ध-विचार प्रेमीजी की परिश्रमपूर्ण खोज के घोतक है। __ आचार्यों के समय, स्थान, प्रेरक, श्रोता, आदि के विवेचन के प्रसन मे प्रेमीजी ने अनेक राजाओ, शिलालेखो आदि का उल्लेख क्यिा है। यया-पाचार्य जिनतेन के साथ भण्डिकुल भूषण महाराज इन्द्रायप, राष्ट्रवशी श्री वल्लभ-गोविन्द द्वितीय, प्रतीहारवशी वत्सराज का विवेचन, मुनि शाकवायन के प्रकरण से महाराज अमोघवर्ष तया शक राजाओं का निरूपण, पण्डिताचार्य आगाधर जी के सम्बन्ध में परमार विन्ध्य वर्मा, सुमट वर्मा, अर्जुन वर्मा, देवपाल तथा जयसिंह द्वितीय का उल्लेख, भाचार्य सोमदेव के अनुसग से राष्ट्रकूट कृष्णराज तृतीय की सिंहल, चोल, वर विजयो का वर्णन, श्रीचन्द्र के साथ परमार भोज, आचार्य प्रभाचन्द्र के साथ परमार जयसिंह, मादि का विवेचन । इन खोजोसे केवल आचार्यों के समय तया त्यान, आदि का ही निर्णय नहीं हुआ है, अपितु इन आचार्यों के निर्देशो के द्वारा इन वशो के इतिहाच की अनेक मान्यताम्रो का पोषण, परिवर्तन और परिवर्द्धन भी हुमा है। इस प्रकार प्रेमीजी ने इतिहास की भी पर्याप्त सेवा की है। यापनीय साहित्य के विषय में प्रेमीजी की खोले अत्यन्त गम्भीर और प्रमाणो से परिपुष्ट हैं। यापनीय संघ के प्रारम्म, भेद, आचार्य-शिष्य परम्परा आदि सभी अगो का प्रेमी जी ने विविध दृष्टियो से विवेचन किया है। इसके अनुनग से पचस्तूप, सेन आदि अनेक अन्वय भी प्रकाश में आ गये हैं। 'जैन मिद्धान्त भास्कर १६३६ 'अनेकान्त १६४० 'जैन हितैषी १९२१ 'जन साहित्य और इतिहास पृ० ५४० 'जैन साहित्य और इतिहास पृ० ५४१ 'जन साहित्य और इतिहास पृ० ५४२ "जैन साहित्य और इतिहास पृ० ५४६ 'जैन साहित्य और इतिहात पृ० ५६२ 'जैन साहित्य और इतिहास पृ० ५२६ "इण्डियन एप्टोक्वायरी प्र० २७, १८९८, ६७-८१, ६२-१०४, १२२-१३६
SR No.010849
Book TitlePremi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremi Abhinandan Granth Samiti
PublisherPremi Abhinandan Granth Samiti
Publication Year
Total Pages808
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size34 MB
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