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________________ भारतीय नारी की वौद्धिक देन . ६७५ "किसी ममय भंवरे से कृष्ण वर्ण घने केश-पाश और सघन उपवन सी यही मेरी वेणी, पुप्पाभरणो तथा उज्ज्वल स्वर्णालकारो से सुरभित एव सुशोभित हुआ करती थी, जो आज जरावस्था मे श्वेत गन्धपूर्ण, विखरी हुई जीर्ण वल्कलो-मी झर रही है । गाढ नील मणियो से समुज्ज्वल, ज्योति-पूर्ण नेत्र आज शोभा-विहीन है । नव-यौवन के समय सुदीर्घ नासिका, कर्णद्वय और कदली मुकुल के सदृश पूर्व की दन्त-पक्ति क्रमश ढुलकती और भग्न होती जा रही है। वनवामिनी कोकिला के सदृग मेरा मधुर स्वर और सुचक्षिण शख की भाति सुघड ग्रीवा प्राज कम्पित है । स्वर्ण-मण्डित उगलियाँ, हस्त द्वय पाज अशक्त एव मेरे उन्नत स्तन आज रम-विहीन ढुलकते चर्म मात्र है। स्वर्ण नपुरी मे सुशोभित परो और झकृत कटि प्रदेश की गति आज कैसी श्री-विहीन है। आज वही स्वर्ण-मजित पलको के समान परम कान्तिमयी रूपवान मुखधाम देह, आज जर्जरित और दुग्यो का आगार बनी है। सत्यवादी जनो के वाक्य वृथा नहीं होते। किन्तु इसी चरम वैराग्य द्वारा जो शान्ति, जिस अलौकिक परम पद की प्राप्ति उन्होने की, उमे कितनी गहराई से सुन्दरी राजकन्या नन्दा अभिव्यक्त करती है "तस्मा तस्सा मे अप्प मत्ताय विचिनन्तिया योनि सो। यथा भूत अय कायो दिट्ठो सत्तर वाडिरो॥ अथ निम्विन्द इ कार्य अज्झतञ्च विरज्ज है। अप्पयत्ता विसयुत्ता उपसन्तम्हि ॥" प्रवल जिज्ञासा उत्पन्न होने पर अदम्य उत्साहपूर्वक मैने उत्पत्ति के कारण और देह के वाह्य अन्तर दोनो स्वम्पो को सम्यक् दृष्टि से देख लिया। इम देह के विषय में मुझे और चिन्ता शेष नहीं। मै अव सपूर्ण रूप से राग-मुक्त हूँ। लक्ष्यबोध, अनासक्त और शान्तचित्त हो निर्वाण-पद की शान्ति का उपभोग कर रही हूँ। (रोहिणी) श्रम, गील, अनालस, श्रेष्ठ कार्यों में मग्न, तृषा द्वेपहीन आज मै व्रती हूँ, बुद्ध हूँ। इससे पूर्व मै नाम मात्र की ब्राह्मण थी, आज मत्य ही ब्राह्मण हूँ। तीनो विद्याओ, (प्रकृतज्ञ, वेदज्ञ, और ब्राह्मणत्व) को पाकर प्राह | आज मै स्नातिका हूँ। मेरा हृदय आज पाकुलता-शून्य, चित्त निर्मल और शान्ति-पूर्ण है। ऐसे-ऐसे उल्लसित वाक्यो से यह 'थेरी गाथाएँ' भरी पडी है। सत्य और सौन्दर्य के इस गहन क्षेत्र में से कौन-सा शिव-पथ है, यहां मन्तव्य नहीं। उक्त विस्तृत उपलब्ध माहित्य द्वारा भारतीय नारी के अन्तर की अद्भुत झलक ससार की प्राचीन भाषाओ मे एक अद्वितीय वस्तु है। अन्य किसी भी देश की प्राचीन स्त्रियो की सृजनता इन नाटक, इतिहास, दर्शन, ज्योतिष,गणित,पालेखन आदि की विदुषियो की सीमा तक नही पहुंच सकी। इतना भी कम गौरवपूर्ण नहीं है। नई दिल्ली] - -
SR No.010849
Book TitlePremi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremi Abhinandan Granth Samiti
PublisherPremi Abhinandan Granth Samiti
Publication Year
Total Pages808
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size34 MB
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