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________________ प्रेमी-प्रभिनदन-ग्रंथ ६६० सोमो वड्युरभदश्विवास्तामुभा वरा। सूर्या यत्पत्ये शसती मनसा सविता ददात् ॥ (ऋ० १०१८ ) अर्थात् (अ) जिस समय हे अश्विन् ! तुम सूर्या के विवाह का प्रस्ताव करते हुए तीन चक्रवाले रथ मे आये, सव देवो ने तुम्हारे प्रस्ताव पर अनुमति दी और पुत्र पूषा (?) ने तुमको पिता के रूप में चुना। (आ) उस समय मोम वधुयु (वधू को चाहने वाला वर) था और दोनो अश्विन वर (यहां वर दूसरे अर्थ में है जैसा कि नीचे स्पष्ट किया जायगा) थे, जव कि मन से पति को चाहती हुई सूर्या को (उसके पिता) सविता ने (सोम के लिये) दिया। इन मत्रो से निम्नलिखित वाते स्पष्ट होती है (१) इस विवाह में 'सूर्या' वधू है और सोम 'वधूयु' अर्थात् वधू को चाहने वाला या वरने वाला है। यहाँ 'वधूयु' शब्द प्रचलित 'वर' के अर्थ में है। (२) दोनो अश्विन वर है। यह स्पष्ट है कि यहां वर शब्द प्रचलित अर्थ से भिन्न अर्थ में है। यहाँ 'वर' का अर्थ विवाह करने वाला नहीं है, बल्कि विवाह करने वाले वधूयु के लिये कन्या का चुनने वाला, ढूढने वाला, विवाह का प्रस्ताव लेकर जाने वाला और विवाह को निश्चय कराने वाला 'वर' है। दोनो 'अश्विन्' वर है, क्योकि वे सोम के लिए कन्या को चुनते हैं । विवाह का प्रस्ताव लेकर जाते है । पाश्चात्य व्यवहार में उनको वर का मुख्य प्रादमी कहा जा सकता है। (३) अश्विन् जिस विवाह का प्रस्ताव लेकर जाते है, जो चुनाव उन्होने किया है, उस पर सब देव (सव जनता) जो परिवार से सम्बद्ध है, अपनी अनुमति देते है। (४) दोनो अश्विनो के प्रस्ताव करने पर सूर्या का पिता सविता उसे स्वीकार करता है। (५) परन्तु पिता की अनुमति तभी सभव हो सकी जव कि वधू सूर्या ने सोम को इच्छापूर्वक पति स्वीकार किया है (पत्ये शसती मनसा)। इस प्रकार यह स्पष्ट है कि चुनाव में तीन अश है-कन्या के द्वारा चुनाव, माता-पिता की स्वीकृति और जनता की अनुमति। यहां पूर्वोक्त १४वें मन्त्र के अन्तिम पद-पुत्र पितराववृणीत् पूषा' का कुछ विवेचन करना अप्रासगिक न होगा। शब्दार्थ तो यही होगा कि "पुत्र पूषा ने तुम अश्विनो को पिता के रूप में चुना"। इसका क्या मतलब हो सकता है ? इस पर सायण चुप है, पर ग्रिफिथ लिखता है, 'पूषा' सूर्य है। उसने अश्विनो को पिता इसलिए माना कि उन्होने उसकी लडकी के विवाह का प्रवध किया, परन्तु यह बिलकुल अयुक्त मालूम पडता है, क्योकि अश्विन, जैसा ऊपर कहा गया है, 'सोम' की तरफ के मुख्य पुरुष है। उसको लडकी का पिता सविता अपना वन्यु या भाई चुन सकता है, न कि पिता, क्यो कि सविता सोम का श्वशुर पितृस्थानीय है। वह सोम के पक्ष के व्यक्ति को यदि वह (मोम का) पितृस्थानीय भी हो तो उसे 'भाई' चुन सकता है, न कि पिता । वस्तुत सायण, ग्रिफिथ, या अन्य टीकाकारो को इसका अर्थ स्पष्ट नहीं हुआ। ऐसा प्रतीत होता है कि यहां 'पूषा' शब्द सोम के लिये है, जिसका कारण कोई भी वैदिक कल्पना हो सकती है, जो कि स्पष्ट नहीं है। चाहे किसी विशेष दृष्टि से हो, पर है यह 'पूपा' शब्द सोम के लिये । जव 'अश्विन्' सोम के लिये कन्या ढूंढने चलते है तो यह स्वाभाविक है कि सोम उन अश्विनो को अपना पिता चुने । 'पूषा' शब्द इस सूक्त में सविता के लिये नही हो सकता, बल्कि सोम के लिये ही है। यह बात इस सूक्त के २६वे मत्र से भी स्पष्ट होती है । २६वें मत्र का पहिला भाग इस प्रकार है - पूषा स्वेतो नयतु हस्तगृह्माश्विना त्वा प्रवहता रथेन ॥ (ऋ० १०८।२६)
SR No.010849
Book TitlePremi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremi Abhinandan Granth Samiti
PublisherPremi Abhinandan Granth Samiti
Publication Year
Total Pages808
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size34 MB
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