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________________ ऋग्वेद में सूर्या का विवाह ६५६ सूचक शब्द क्या हो सकता है ? हमारी सस्कृति मे यह भावना चली आती है कि स्त्री ही घर है-'गृहिणी गृहमुच्यते' इस भावना का स्रोत भी ऋग्वेद का यह मत्र ही है-'जायेदस्तम्" (जाया+इत् +अस्तम्) अर्थात् स्त्री ही घर है । ऋगवेद मे स्त्री का यह स्वरूप प्राधुनिक पालोचको की भावना से मेल नहीं खाता, क्योकि समझा जाता है कि वैदिक आर्यों का समाज पितृतन्त्र (Patriarchic) परिवार से बना था, जिसके अनुसार स्त्री का पद हीन है। इसके विपरीत भारत मे पार्यों से पहले विद्यमान द्राविड सभ्यता का परिवार मातृतन्त्र (Matriarchic) था, जिसमें स्त्री का स्थान पुरुष से अधिक गौरवपूर्ण है । आर्य एक स्थान पर न रहने वाले साहसप्रिय विजेता थे। इसलिये उनके समुदाय में स्त्रियो का पद उतना गौरवशाली नही हो सकता था, परन्तु द्राविड सभ्यता स्थिर जीवन की पोषक नागरिक सभ्यता थी। अत उसमे स्त्री का पद उच्च होना स्वाभाविक था । इस दृष्टि से आधुनिक हिन्दू समाज में, जो कि वैदिक आर्यो तथा द्राविड जाति की सस्कृति का सम्मिश्रण है, स्त्रियो का पद वैदिक संस्कृति से कुछ उच्चतरही होना चाहिए था, परन्तु वास्तविक स्थिति इससे ठीक उल्टी है। किन-किन सस्कृतियो के सपर्क से किन-किन परिस्थितियो मे भारतीय नारी का सामाजिक पद उन्नत और अवनत हुआ है, यह इतिहास के विद्यार्थियो के लिये एक जटिल समस्या है, जिसका पालोचनात्मक अध्ययन होना चाहिए। ___ स्त्री का पद गौरवपूर्ण होते हुए भी वैदिक संस्कृति मे इस प्राकृतिक तथ्य को स्वीकार किया गया है कि स्त्री पुरुष के द्वारा रक्षा और आश्रय की उपेक्षा रखती है। विवाह से पूर्व कन्या माता-पिता के पाश्रय में रहने के साथसाथ विशेषकर अपने भाई के मरक्षण में रहती है, यह वैदिक संस्कृति के 'भ्राता' शब्द की विशेष भावना है। 'भ्राता' शब्द का घात्त्वर्थ न केवल सस्कृत मे, प्रत्युत भारत-यूरोपीय परिवार की सभी भाषाओ में (रक्षा करने वाला) अर्थात् वहिन का रक्षक है। इस प्रकार 'भ्रातृत्त्व' का प्रवृत्ति निमित्तक मूल अर्थ वहिन की दृष्टि से ही है। दो सगे भाइयो के बीच 'भाई' शब्द का प्रयोग गौण रूप से ही हो सकता है। उसका मौलिक प्रयोग तो वहिन की दृष्टि से होता है। इसी लिये भाई के द्वारा वहिन की रक्षा का भाव हमारी संस्कृति मे अोतप्रोत है और वह मनुष्य की उदात्ततम भावनायो मे गिना जाता है । इमी दृष्टि से भाई बहिन का स्नेह अत्यन्त निष्काम और मधुरतम है तथा भाई का वहिन के प्रति कर्तव्य अति वीरोचित भावनामे भरपूर है । पजावी भाषा में भाई के लिए 'वीर' शब्द का प्रयोग कितनासारगर्मित है। इस प्रकार ऋग्वेद की नारी जहां वर्तमान हिन्दू स्त्री के समान गौरवहीन और व्यक्तित्वहीन नही है, वहाँ आधुनिक पश्चिम की नारी के समान पुरुष की रक्षा और छाया से पृथक् स्वच्छन्द विचरने वाली स्त्री भी नही है । विवाह के सवध मे पति का चुनाव एक मौलिक प्रश्न है । यह चुनाव भी न तो वर्तमान हिन्दू समाज के समान है, जिसमे कन्या और वर का कोई हाथ ही नही और न पश्चिम के समान है, जिसमें युवक और युवती ही सर्वेसर्वा है और स्वय ही अपने लिए साथी ढूढते है । ऋग्वेद के चुनाव मे तीन अश स्पष्ट दिखाई देते है (१) वर वधू का पारस्परिक चुनाव, विशेषकर कन्या का अपनी इच्छापूर्वक पति को चुनना। (२) माता-पिता और वन्धुप्रो द्वारा चुनाव मे सहयोग, प्रयत्न और अनुमति । (३) सार्वजनिक अनुमति अर्थात् साधारण पडोसी जनता द्वारा उस सबध की स्वीकृति । इन तीन वातो पर प्रकाश डालने वाले सूर्यासूक्त के दो महत्त्वपूर्ण मन्त्र निम्नलिखित है यदश्विना पृच्छमानावयात त्रिचक्रेण वहत सूर्याया। विश्वे देवा अनु तद्वामजानन् पुत्रः पितराववृणीत पूषा ॥ (ऋ० १०८५०१४) 'ऋग्वेद १०॥५३॥४॥
SR No.010849
Book TitlePremi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremi Abhinandan Granth Samiti
PublisherPremi Abhinandan Granth Samiti
Publication Year
Total Pages808
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size34 MB
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