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________________ समाज-सेवा ६३५ वाले ये सब चीजें पैसे ने खरीदते है, घर वारह वाट कर गले में गुलामी का नोक डाले सुबह-सुबह खरगोश की चाल जाते हैं और शाम को कछुए की चाल घिसटते-घिसटते घर आते है। वृक्ष का अपना कोई सुख नहीं होता, जडो का नीचे तक जाना और खुराक खीचने के लिए काफी मजबूत होना,पीड काडालियो और पत्तो के बोझ को सभाले रखने के लिए काफी मोटा होना और रस ऊपर ले जाने के लिए पुरा योग्य होना, डालो का मुलायम होना और पत्तो का हरा-भरा होना इत्यादि ही पेड का सुख है। ठीक इसी तरह समाज का अपना कोई सुख नहीं। वह समाज सुखो है, जिसके बच्चे, जवान, बूढे, औरत-मर्द सुखी है, भरे-वदन है, हँसते चेहरे है, ऊंची पेशानी है, खातिरदारी के नमूने है, समझदारी के पुतले है, आदमी को शकल में फरिश्ते है । ऐसे ही मनुष्यो की जिन्दगी के लिए देवता तरमते हैं। जिस्म बनाने के लिए खाना, कपडा और मकान चाहिए। जी हाँ, चाहिए, पर उन चीजो के जुटाने मे अगर आपने देह को थका मारा तो वे मुख न देकर आपको काटेगे, खसोटेगे, रुला देगे। मेहनत से आप ये चीजें जुटाइये, पर ऐसी मेहनत से,जिसमे लगकर आपकाजिम्म फूल उठे, आपका मन उमग उठे,आपका जी लग सके, आपका दिमाग ताजगी पा सके, आपकी प्रात्मा चैन माने और जिस काम मे आप अपने को दिखा रहे हो कि आप क्या है, जिस काम मे आपका पात्म-विकाम न हो, आपका आत्म-प्रकाश न हो, उसे कभी न करना। वह काम नही, बेगार है। वदले मे ढेरोरुपये मिले तो भी न करना। असल में जी न लगने वाले कामो मे लगकर जी मर जाताहै। मरे जी, मरी तबियतें सुख का आनन्द कैमे ले मकती है ? दोस्तो, समाज को सुखी बनाने के लिए अपना वक्त जाया न करो। वह सुखी न होगा। वह मशीन है। वह जानदार नहीं है। वह तुम मव का मिल कर एक नाम है। तुम अपने को सुखी वनायो, वह सुखी है। यह नहीं हो रहा। जैसे बहुत खाने मे सुस नहीं होता, भूखो मरने से भी सुख नही मिलता, वैसे ही वहुत कमाने से सुख नहीं मिलता और न विलकुल बेकार रहने मे । जो वेहद कमा रहे है, वे विलकुल सुखी नही। वे असल में कमाही नही रहे। उनके लिए और कमा रहे है और जो और कमा रहे है वे यो सुखी नही है कि वे अपने लिए नहीं कमा रहे । यो समाज में कोई सुखी नहीं है और इमी वजह से समाज मे कही पहाड और कही खाई वन गई है। समतल भूमि नाम को नही रही। समता में सुख है । समता का नाम ही समाज है। अगर समता का नाम समाज नही है तो उस समता को पैदा करने के लिए ही उसकाजन्म होता है। समता होने तक समाज चैन नही लेता। चैन पा भी नहीं सकता। खाना, कपडा, मकान दुख पाये विना मिल सकते है, जरूर मिल सकते है, विला शक मिल सकते है और अगर नहीं मिल सकते तो सुख भी नहीं मिल मकता। फिर समाज का ढाचा वेकार। उसका पैदा होना बेसूद, उसकी हस्ती निकम्मी । अगर पाराम को निहायत जसरी चीजे जुटाने मे भी हमें अपने पर शक है तो सुख हमारे पास न फटकेगा। फिर तो हम मोहताज से भी गयेबीते है। फिर बच्चे के माने अनाथ । जवान के माने टुकरखोर, और बूढे के माने जीते-जी-मुर्दा। सांस लेकर खून की खुराक हवा, हम हमेशा से खीचते आये है, खीच रहे है और खीचते रहेंगे। फिर हाथपावहिलाने से जिस्म की खुराक रोटी, कपडा, मकान क्यो न पायेगे? हम पाते तो रहे है, पर पानहीं रहे है। कोशिश करने से पा सकते है और पाते रहेंगे। हवा हम खुद खीचते है, अनाज और कपास भी हम खुद उगायेंगे। मकान भी आप बनायेंगे। हमने अब तक धन ढूढा, धन ही हाथ आया। अव सुख को खोज करेगे और उसे ढूंढ निकालेंगे। जर, जमीन, जबर्दस्ती की मेहनत और जरा सख्त इन्तजामी से पैसा कमाया जाता है तो चार बीघे जमीन स चार घडी सुबह-शाम जुट जाने से, चर्खे जैसी मशीनो के बल से और चतुराई की चौंटनी जितनी चिनगारी से चैन और सुख भी पाया जा सकता है ।
SR No.010849
Book TitlePremi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremi Abhinandan Granth Samiti
PublisherPremi Abhinandan Granth Samiti
Publication Year
Total Pages808
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size34 MB
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